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कोठार का कार्य से कोठारी हुकूमत का कार्य से हाकिम मोदी का कार्य से मोदी चौधराट का कार्य से चौधरी
भण्डार के कार्य से भण्डारी (v) पदवी आदि के आधार पर नामकरण
शाह, सेठ, सेठिया, वैद्य, पारख, सिंघवी, संघवी आदि (vi) हंसी मजाक के आधार पर नामकरण
___ गेलडा, टाटिया, हीरण, बाघमार, चिंचड, धोका आदि 18 पूर्वजाति (उद्भव जाति) के आधार पर
ओसवंश के विविध गोत्रों की पूर्व जातियां ___ जाति व्यवस्था का जन्म वर्णव्यवस्था से हुआ है। मूल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार जातियां मानकर अवान्तर भेद मान लिये गये हैं। जैन साहित्य में केवल महापुराण में जाति व्यवस्था को प्रश्रय मिला है। जैनधर्म में जातिवाद को स्थान नहीं है किन्तु, जैन साहित्य के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि लगभग प्रथम शताब्दी के काल से लेकर जैनधर्म रूपी मयंक को जातिवाद रूपी राहु ने ग्रसना प्रारम्भ कर दिया था। दिगम्बर जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है, न देह वंदनीय है, न कुल वंदनीय है, न जाति संयुक्त मनुष्य ही वंदनीय है। गुणहीन मनुष्य की मैं वन्दना कैसे करूँ। ऐसा मनुष्य न श्रावक ही हो सकता है न श्रमण ही।
महावीर के ही समान दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ 'वरांगचरित्र' में कहा है, ब्राह्मण कुछ चन्द्रमा की किरणों के समान शुभ्रवर्ण वाले नहीं होते, क्षत्रिय कुछ किंशुक के पुण्य के समान गौर वर्ण वाले नहीं होते, वैश्य कुछ हरताल के समान रंग वाले नहीं होते और शूद्र कुछ अंगार के समान कृष्ण वर्ण वाले नहीं होते। चलना, फिरना, शरीर का रंग, केश, सुख-दुख, रक्त, त्वचा, मांस, मेदा, अस्थि और रस इन सब बातों में एक समान होते हैं।
पारमार्थिक दृष्टि से जैनमत में जातिवाद को अस्वीकार किया है। पारमार्थिक दृष्टि हो या लौकिक दृष्टि, जातिवाद बुरा है, जाति नहीं।
ओसवंश के विविध गोत्रों का उद्गम प्रमुख रूप से प्रारम्भ में क्षत्रियों और कालांतर में राजपूतजाति से हुआ, किन्तु कालांतर में अन्य जातियों- ब्राह्मण, अन्य वैश्य वर्ग और कायस्थ
आदि जातियों ने भी छोंक डाली है। 1. पं. फूलचंद शास्त्री, वर्ण, जाति और धर्म, पृ 165 2. वरांगचरित 3-195
न ब्राह्मणाश्रन्द्र मरीचि शुभ्रा न क्षत्रिय: किशंकु पुण्य गौरा। न चेह वैश्या हरिताल तुल्या: शूद्रा नचाङ्गारसमान वर्णा ॥ पाद प्रचारे स्तनु वर्ण केशैः सुखेन दुखेन च शोणितेन। त्वग्मांसमेदोऽस्थिरसै: समानाश्चतुः प्रभेदाश्च कथं भवन्ति
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