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गुरु कियो त्याग धन वैकार एक वचन मोय दीजिये । मिथ्या त्याग जैनधर्म ग्रहो दान शील तप कीजिये || तहत वचन उर धार नृपत श्रावक व्रत लिया । पुर डुडिं फरवाय नार नर भेला किया || भिन्न भिन्न वख्यान सुणे गुरु के वायक । . खट काया प्रति पाल शील संयम सुख दायक || कर मनसो थों सकल मिल मौड कर जोडिया । सिद्धान्त जान जिन धर्म को शक्त पन्थ मुख मोडिया शील धर दृढ़ साच करे पौषाद पडीक्ररमा । सामायिक संम भाव समझ वै दिन दिन दुणा ।। हिंसा कहु नहीं लेस देश में आण फीराई || धर्म तण फल ष्टि सबे सांभल जो भाई ॥ इह भांत जैन धर्म धारियो शक्त पंथ मुख मोड़के गुरां वचन शिरधरी नृप मान मोड़ कर जोड़के इष्ट मिलियौ मन मिल गयो, मिल मिल मिल्यो मेल फूल वास धृत दुध जिय, ज्यो, तिलयन मांही तेल सहस चौरासी एक लख घर गणती पुर मांह एकण थाल अरोगिया, भिन्न भाव कुच्छ नाह ओटा जगड़ा छोढिया, गढ़ गढ़ शस्त्र सीपाह ।
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गुटों के छन्दों से यह पता चलता है ओसवंश के आदिपुरुष भिन्नमाल के क्षत्रिय राजकुमार उपलदेव थे । इनके पिता का नाम कहीं भीमसेन दिया है और कहीं देशलदे । इनके मित्र का नाम सब स्थानों पर ऊहड़ ही है। परमार शब्द प्रक्षिप्त जान पड़ता है। यह कवित्त 17वीं 18वीं शताब्दी के है। श्री भूतोड़िया की भ्रामक धारणा है कि विक्रम संवत् 24 में आभा नगरी का देशल सुत्त जग्गा शाह बहुत बड़ा धनपति हुआ जिसकी दानवीरता जग प्रसिद्ध थी । भाटों/चारणों ने उसकी जग प्रसिद्धि में सैंकड़ों छन्द बनाए ।' इसी कारण 222 संवत् में ओसवालों की स्थापना का कारण बताना उचित नहीं जान पड़ता ।
1. इतिहास की अमरबेल, ओसवाल, प्रथम खण्ड, पृ 100
2. वही, पृ 100
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'आठवीं / नवीं शताब्दी के बाद परमार राजपूत कुल के अनेक सामन्तों / शासकों को जैनाचार्यों ने प्रतिबोध देकर जैन धर्म अंगीकार कराया एवं ओसवाल महाजन जाति में सम्मिलित करके उनके वंशजों के विभिन्न गोत्र स्थापित किये। कालांतर में हो सकता है इस भ्रमवश 17वीं
बीसवीं सदी के बीच रचे या लिखे गये कवित्त और छन्दों में ये शब्द स्थान पा गये ।'2 9वीं 10वीं शताब्दी के पश्चात् सभी राजपूत जातियों के राजपुत्रों ने जैनमत अंगीकार किया और ओसवालों के विभिन्न गोत्र स्थापित किये, किन्तु उपलदेव परमार था, यह भ्रम सबसे पहले
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