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महोत्सव और माघ शुक्ल पूर्णिमा के दिन बड़ी बड़ी सभाएं करके आचार्य रत्नप्रभसूरि जी की जयन्ती मनाकर यह शुभ संदेश प्रत्येक प्राणी के हृदय तक पहुंचा कर कृतार्थ बने । '
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श्री भण्डारी की मान्यता है कि विक्रम संवत् 1393 का लिखा हुआ एक हस्तलिखित ग्रंथ 'उपकेशगच्छ चरित्र' मिलता है। उसमें तथा और भी जैन ग्रंथों में ओसवाल जाति और ओसिया नगरी की उत्पत्ति के विषय में जो कथा लिखी हुई है, वह इस प्रकार है
विक्रम संवत् से करीब चार सौ वर्ष पूर्व भीनमाल नगरी में भीमसेन नामक राजा राज्य करता था, जिसके दो पुत्र थे, जिनके नाम क्रमशः श्रीपुंज और उपलदेव था। इस विषय में दो मत और पाये जाते हैं, पहला यह कि पट्टावली न. 3 में भीमसेन के एक पुत्र श्रीपुंज था, जिसके सुर सुन्दर और उपलदेव नामक दो पुत्र हुए। दूसरा यह कि भीमसेन के तीन पुत्र थे, जिनके नाम क्रमशः उपलदेव, आसपाल और आसल थे। जिनमें से उपलदेव ने ओसिया तथा आसल ने भीनमाल बसाया । प्रथम मतानुसार एक समय युवराज श्रीपुंज और उपलदेव के बीच किसी कारणवश कहासुनी हो गई, जिस पर श्रीपुंज ने ताना मारते हुए कहा कि इस प्रकार के हुक्म तो वही चला सकता है, जो अपनी भुजाओं के बल से राज्य की स्थापना करे । यह ताना उपलदेव को सहन नहीं हुआ और वह उसी समय नवीन राज्य स्थापना की प्रतिज्ञा करके अपने मंत्री ऊहड़ और
धरण को साथ ले वहाँ से चल पड़ा। उसने ढेलीपुरी (दिल्ली) के राजा साधु की आज्ञा लेकर मण्डोर के पास उपकेशपुर का ओसिया पट्टण नामक नगर बसा कर अपना राज्य स्थापित किया । उस समय ओसियां नगरी का क्षेत्रफल बहुत लम्बा चौड़ा था। ऐसा कहते हैं कि वर्तमान ओसियां नगरी से 12 मील दूर पर जो तिवरी गांव है, वह पहले ओसियां का तेलीवाड़ा था तथा जो इस समय खेतार नामक ग्राम है, वह पहले यहाँ का क्षत्रीपुरा था ।
राजा उपलदेव वाममार्गी था और उसकी खास कुलदेवी चामुण्डा माता थी । इसी समय जैनाचार्यों में भगवान पार्श्वनाथ के सातवें पट्टधर आचार्य रत्नप्रभसूरि अपने उपदेशों के द्वारा प्रचार करते हुए आबू पहाड़ से होते हुए उपकेशपट्टण में पधारे और पास ही लुणाद्रि नामक छोटी सी पहाड़ी पर एक एक मास की तपश्चर्या कर ध्यानावस्थित हो गये । इस समय 500 मुनियों का संघ उनके साथ था। कई दिन होने पर भी जब उन मुनियों के शुद्ध भिक्षा की व्यवस्था उस नगरी में न हो सकी तब लोगों ने आचार्य श्री से प्रार्थना की कि भगवान, यहाँ पर साधुओं के लिये भिक्षा की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। ऐसी स्थिति में मुनियों का इस स्थान पर निर्वाह होना कठिन है। आचार्य श्री ने जब विहार का निश्चय किया, तब वहाँ की अधिष्ठायिका चामुण्डा देवी ने प्रकट होकर कहा कि महात्मनू, इस प्रकार से आपका यहाँ से चले जाना अच्छा नहीं होगा, यदि आप यहाँ पर अपना चातुर्मास नहीं करेंगे तो संघ और शासन का बड़ा लाभ होगा। इस पर आचार्य ने मुनियों के संघ को कहा कि जो साधु विकट तपस्या करने वाले हों, वे यहाँ रह जायं, शेष सब यहाँ से विहार कर जाये । इस पर 465 मुनि तो आचार्य की आज्ञा से विहार कर गये । शेष 35 मुनि तथा आचार्य चार चार मास की विकट तपस्या स्वीकार कर समाधि में लीन हो गये। इसी
1. भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, प्रथम खण्ड, पृ 120
2. श्री सुखसम्पतराज भण्डारी, ओसवाल जाति का इतिहास, पृ 5
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