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198 दाने मिलने मुश्किल हो गये थे, तो साधुओं के लिये भिक्षा का कहना ही क्या ? यदि कहीं मिल जाय तो सुख से खाने ही कौन देता? उस भयंकर दुष्काल में यदि कोई व्यक्ति अपने घर से भोजन कर तत्काल निकल जावे तो भिक्षुक उदर चीरकर अन्दर का भोजन निकाल कर खा जाते थे। उस हालत में कितने ही जैनमुनि अनशनपूर्वक स्वर्ग को चले गये। शेष रहे मुनियों ने ज्यों त्यों कर दुष्काल रूपी अटवी का उल्लंघन किया। जब अकाल के बाद सुकाल हुआ तो आचार्य यक्षदेवसूरि (चन्द्रादि चार मुनियों को पढ़ाने वाले) ने रहे हुए साधुओं को एकचित किये तो 500 साधु, 700 साध्वियां, 7 उपाध्याय, 12 वाचनाचार्य, 4 गुरु (आचार्य), 2 प्रवर्तक, 2 महत्तर (पदविशेष), 12 प्रवर्तनी, 2 महत्तारिक इत्यादि सब को शामिल कर गच्छ मर्यादा बांध दी।'
कोरंटपुर को हस्तलिखित पट्टावली में भी अंकित है कि वीर निर्वाण संवत् 70 वर्ष में आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशपुर पधारे, तबकनकप्रभादि 465 साधु विहार कर कोरंटपुर में चौमासा किया और वहां उनके प्रेरणा से एक महावीर जी का मंदिर निर्मित किया गया। जब रत्नप्रभसूरि जी ने उपकेशपुर के उपलदेव और मंत्री ऊहड़ और सवालाख क्षत्रियों को जैनधर्म के श्रावक बनाया तब उस वक्त कोरंटपुर का संघ रत्नप्रभसूरि जी से विनती करने आया कि आप महावीर स्वामी के नवनिर्मित मंदिर की प्रतिष्ठा करें । उस समय माघ सुदि पंचमी को रत्नप्रभसूरि जी ने एक ही दिन उपकेशपुर और दूसरी कोरंटपुर में प्रतिष्ठा कराई।
'प्रभावक चरित्र' एक प्राचीनग्रंथ है, जिसमें कोरंटपुर का उल्लेख है। इसमें उपाध्याय
1.उपकेशगच्छ चरित्र
तदन्वये यक्षदेव सूरि रासीद्धियां निधिः । दशपूर्वधरो बज्र स्वामी भुव्यभवद्यदा ।। दुर्भिक्षे द्वादक्षाब्दीये, जनसंहारकारिणी । वर्तमानेऽनाशकेन. स्वर्गेऽगबहसाधवः ।। ततो व्यतीते दुर्भिक्षेऽवशिष्टान् मिलितान् मुनीन् । अमेलयन्यक्षदेवा, चार्याचन्द्रगणे तथा । तदादि चन्द्रगच्छस्य, शिष्य प्रव्राजन नाविधौ । श्राद्धानां वास निक्षेपे. चन्द्रगच्छ: प्रकीर्त्यते ॥ गण: कोटिक नामापि, वज्रशाखाऽपिसंमता। चान्द्रकुलं च गच्छेऽस्मिन, साम्प्रतं कथ्यते ततः। शतानि पंच साधूनां, पुनगच्छेऽपिमिक्तनिह । शतानि सप्त साध्वीनां, तथोपाध्याय सप्तकम ।। दशद्वौवाचनाचार्या श्चत्वारो गुरु वस्तथा । प्रवर्तकौ द्वावभूतां, तथैवोभे महत्तरे । द्वादशस्यः प्रवत्तिन्य::, समीति द्वौ महत्तरौ.
मिलितौचन्द्र गच्छान्तं सखयेयं कथ्यते गणे॥ 2. प्रभावक चरित्र, पृ191
तत्र कोरंटकं नाम पुर मस्त्युन्नता श्रयम् । द्विजित विमुखायत्र विनता नन्दना जनाः ॥ तत्राऽस्ति श्री महावीर चैत्यं चैत्यं दधद् दृढम । कैलाश शैलवभाति सर्वाश्रय तयाऽनया । उपाध्यायोऽस्ति तत्र श्री देवचन्द्र इति श्रतः । विद्ववन्द शिरोरत्न तमस्ततिहारो जनैः ।।
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