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197 वीर निर्वाण संवत् 70 में ओसिया नगरी में ओसवंश का उद्भव हुआ, यह उपकेश वंश पट्टावलियों और ‘उपकेशचरित्र' पर आधारित है। "इतिहास और काव्यों के अतिरिक्त वंशावलियों की कई पुस्तकें मिलती है। तथा जैनों की कई पट्टावलियां मिलती है। ये भी इतिहास के साधन है। प्रत्यक्ष प्रमाणों की दृष्टि से उस समय के शिलालेख, ताम्रपत्र और अन्य लेख प्राप्त नहीं है। प्रत्यक्ष प्रमाणों की तुलना में उस युग के इतिहास को जानने के लिये परोक्ष और प्रत्यक्ष प्रमाणों पर ही निर्भर होना पड़ता है। पट्टावलियां त्याज्य नहीं है। टाडकृत राजपूताने का इतिहास' केवल बारणी साहित्य पर आधारित है, किन्तु इतिहासकारों की दृष्टि में यह मान्य है। पृथ्वीराज रासो', 'मुहणौत नैणसीरी ख्यात' और टाडकृत 'राजपूताने के इतिहास' में अनेक त्रुटियां हैं , किन्तु उस समय के अनुपलब्ध इतिहास का यह अद्भुत खजाना है। इतिहास तथ्य नहीं सत्य है। तथ्य प्रत्यक्ष प्रमाण पर आधारित होता है और सत्य में यथार्थ और अनुमान का मणिकांचन योग होता है। इन पट्टावलियों में गुरु परम्परा द्वारा कंठस्थ ज्ञान मिलता है। जैन शिलालेखों का समय प्राय: विक्रम संवत् 10वीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है और उसमें भी इस जाति के उद्भव का उल्लेख नहीं है। क्या यह सम्भव नहीं कि महाजन शब्द अत्यधिक प्राचीन है और ओसवंश/ ओसवाल वंश अर्वाचीन ?
भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा- प्रथम जिन्द में इस जाति की प्राचीनता के विषय में गहराई से विचार किया गया है। इसके अनुसार 'जैन पट्टावलियों' में 'हिमवंत पट्टावली' सबसे प्राचीन पट्टावली है। इसके रचयिता आचार्य हिमवंतसूरि हैं। आप श्री का नामोल्लेख 'श्री नंदी सूत्र कीस्थविरावली' में मिलता है। आचार्य हिमवंत आर्य स्किन्दल के पट्टधर थे। अत: इतिहास के लिये प्रस्तुत पट्टावली बड़ी उपयोगी है। इसमें वर्णित घटनाओं में किसी प्रकार की शंका नहीं है। इस गाथा में जो वर्णन मिलता है, वह हस्तीगुफा से प्राप्त महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजाखारवेल के शिलालेख ठीक मिलता है।
कुछ परोक्ष प्रमाणों से यह पता चलता है कि पूर्व जमाने में गंधहस्ती आचार्य ने जैनागमों का विवरण जरूर लिखा था, जिसको ओसवंश शिरोमणि श्रावक पोलक ने लिखवाकर जैन श्रमणों को स्वाध्याय के लिये समर्पण किया था। उस समय मथुरा में इस वंश की संख्या विशेष थी तब ही तो पोलक को ओसवंश शिरोमणि कहा है। जब हम ओसवंश की वंशावलियों को देखते हैं तो पता मिलता है कि उस समय मथुरा में जैनमंदिर बनाने एवं जैनाचार्यों की आग्रहपूर्वक विनती करके चातुर्मास करवाने वाले बहुत श्रावक बसते थे।'
उपकेशगच्छ के अन्दर विक्रम की दूसरी शताब्दी में बड़े बड़े विद्वान मुनि और यक्षदेव सरीखे पूर्वधर आचार्य विद्यमान थे। उस समय दशपूर्वधर आचार्य वज्रसूरि के सदृश अनेक गुणनिधि आचार्य यक्षदेवसूरि भूमिमण्डल पर विहार करते थे, उस समय भीषण जनसंहार करने वाला बारहवर्षीय भीषण दुष्काल पड़ा था। जब धनिक लोगों के लिये मोतियों के बराबर ज्वार के
1.गौरीशंकर हीराचंद ओझा, राजपूताने का इतिहास, पृ10 2. भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा, प्रथम जिल्द, पृ 149 3. वही, पृ 139
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