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एक लाख देवे खरा दुरंग बसूं हुं आय बलती भोजाई कहै बचन सुनो चित लाय 11311 देवर जी सुण ज्यों तुम्हें किसो कोट छै सून या विण आया ही मरै राखो ये अब मून ||4|| बड़ऊ धरण बखाणीयै छोटो ऊहड़ जांण उठीयो बचन सुणीकरी लघु बंधव हरिराण 11511 कोप अंग तिण बेल घण नयो बसाउ ट्रंग एम कही आयो सहर बहुलो पोरस अंग ||6|| उपल नै पासै जइ वदे पाछली भोजाई मोसो दियो सुवालो मुज तात 11711
बात
नाहरजी के ग्रंथागार में कुछ और छन्द मिले हैं जिसमें भोजकों के दफ्तर से ओसवालों की उत्पत्ति बताई गई है। इसके अनुसार श्रीमाल नगर में ऊहड़ रूहड़ दो भाई थे। दोनों श्रेष्ठिपुत्र थे। ऊहड़ को उसकी भाभी ने उपालम्भ दिया। एक दिन ऊहड़ राजपुत्र ऊपल के पास आया और दोनों ने नया नगर बसाने की ठानी। यह दोनों मण्डोवर आए। इन्होंने ओसिया नगर बसाया । वहाँ रतनसूरि आचार्य पधारे। वे जैनधर्म नहीं, शिवधर्म जानते थे । साधु ने पूनी से सर्प बनाया और श्रेष्ठपुत्र सुखसेन सोया था, उस समय पीणिया सर्प ने विष पिला दिया। उस समय राजा उनका शिष्य हुआ। इस कथा में संवत् 'वीये बाइसे' में राजपूत कौमों से ओसवालों के 18 गोत्र बनने के साथ भोजकों की उत्पत्ति कथा भी है -
भोजकों के दफ्तर से ओसवालों की उत्पत्ति
श्रीमाल बसै दोय सेठ भले निधि उहड़ रूहड़ भाई । निनानु रूहड़ सो लाख उहड़ सवाई 11 उहड़ इच्छा उपनी कोट में बास करीजै । बिनती करी बीरकु दाम लख उधारा दीजै ।। बसै कोट थाहीं बिना भोजाई मुख भाखियो । मरण भलो ध्रग मांगणों हृदय में गूसो राखियो ||1|| सहर बसै श्रीमाल गांव चोबीस गिरी दे । राज करै पौंवार दूठ राजा देशल दे ॥ देशल सुत दस दोय उपल ओमादिख दाखीजै । बिजो पढ़ा दिये दूण उपल दो सेर जवार दीरीजै ॥ एक दिन कंवर उपल कनेए कर जोड़ रूहड़ कहैं । पुर सूँ अलग पड़ पगल तो राव तुम मो पासे रहें ||2|| सूरज उगै सासता कवर नित गोट करावे । रूड़े चित रावतां आवतां आवध बनावे ॥
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