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मध्यकाल में जैनमत में विभिन्न भेद-उपभेदों के रूप में गच्छों और संघों के रूप में अस्तित्व में आया। जैनाचार्यों की धर्मप्रसारक प्रभावना एवं उद्बोधन से विभिन्न जातियां मुख्यत: क्षत्रिय और राजपूत जैनमत में दीक्षित हुए। ।
जैन परम्परा के अनुसार 65 ई. में जिनदत्त के चार पुत्रों- चन्द्र, नागेन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर ने श्रमणधर्म की दीक्षा ली। यही क्रमश चन्द्रकुल, नागेन्द्रकुल, निवृत्तिकुल और विद्याधर कुल के रूप में प्रकट हुए। ऐसा कहा जाता है कि 84 ई. में 4 गणों और 84 गच्छों की उत्पत्ति हुई। कुछ पट्टावलियों में 937 ई. में 84 गच्छों के अस्तित्व में आने का उल्लेख है। वस्तुत: खतरतर गच्छ, अंचलगच्छ, तपागच्छ बाद में अस्तित्व में आए। ये गच्छ अधिकतर सिरोही, मारवाड़ जैसलमेर और मेवाड़ में थे।
खरतगच्छ राजस्थान में सर्वाधिक प्रभावशाली, लोकप्रिय और प्रसिद्ध गच्छ रहा है। यह समय समय पर कई शाखाओं में विभक्त हुआ।
1110 ई. में जिनवल्लभसूरि द्वारा । मधुकर खरतर शाखा 1112 ई. में जमशेरसूरि । रूद्रपल्लीय खरतर शाखा 1274 ई. में जिनसिंह सूरि लघु खरतर शाखा 1365 ई. में
जिनेश्वरसूरि वैकट खरतर शाखा 1404 ई. में जिनवर्धनसूरि पिप्पलक खरतर शाखा 1507 ई. में
शांतिसागरसूरि आचार्यिया खरतरशाखा 1629 ई. में
जिनसागर सूरि लघु आचार्यिया खरतर शाखा 1643 ई. में रंगविजयगणी रंगविजय खरतरशाखा खरतरगच्छ की निम्नशाखाएं भी देखने को मिली है - 1. जिनचन्द्रसूरि द्वारा स्थापित साधु शाखा 2. माणिक्यसूरि शाखा 3. क्षेमकीर्ति शाखा 4. जिनरंग सूरि शाखा 5. खरतरगच्छ का चन्द्रकुल 6.खरतरगच्छ का नंदिगण 7. वर्धमान स्वामी का अन्वय 8. जिनवर्धनसूरि शाखा
9.रंगविजय शाखा 1. जैन साहित्य संशोधक 2, अंक 4, परिशिष्ट पृ 10 2. तपागच्छ पट्टावली भाग 1, 471 3. जैन साहित्य संशोधक, खण्ड 2, अंक 4, परिशिष्ट 70 4. पट्टावली प्रवध संग्रह, पृ 91,97 5. डॉ. (श्रीमती) राजेश जैन, मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, पृ84 6. मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, पृ 84-85
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