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191 कल्याण हो।
आचार्य श्री ने उच्च स्वर और मधुर भाषा से धर्मदेशना देना प्रारम्भ किया। राजा ने कहा कि आपने अज्ञानरूपी पर्दे को चीर डाला है, सूर्य का प्रकाश कर सदमार्ग दिखलाया है। आपने हमारे पुत्र को जीवन दान ही नहीं दिया, मिथ्या के समुद्र से निकालकर हमारा उद्धार किया है। उस समय आचार्य श्री के आदेश से गले के जनेऊ और कंठियें तोड़ तोड़कर सूरीश्वरजी के चरणों में डाल दिये।
यह कहा जाता है कि राजा-प्रजा को धर्मदेशना देकर उन सबको श्रावण कृष्ण 14 को जैनधर्म की दीक्षा दी। उन राजा, मंत्री और क्षत्रियों की संख्या पट्टावलीकारों ने सवालक्ष की लिखी है।
उस समय शास्त्रार्थ के पश्चात् नूतन जैन समूह के लिये 'महाजनसंघ' नामक संस्था की स्थापना करवा दी।
ऐसा माना जाता है कि आचार्य रत्नप्रभसरि ने उपकेश वासियों को ही नहीं चामुण्डादेवी को भी अहिंसा का प्रतिबोध दिया। उपकेशगच्छ चरित्र के अनुसार1. उपकेशगच्छ चरित्र
ततोऽवरत् स सचिवं, श्रुत्वावै धर्मरूपकम। गृहयताम् जैनधर्मश्च, कल्याणं लभ्यता त्वया ॥ अर्पितं तद्धनं तेन, नांगीकृत मलोभिना ।
पूज्यन्ते मुनियश्चैव, त्यक्त सर्व परिग्रहा। 2. भगवान पार्श्वनाथ परम्परा का इतिहास, पूर्वार्द्ध, पृ90 3. वही, पृ95 4.उपकेशगच्छ चरित्र
अन्यदोपसका: पूज्यैः प्रोक्ता: माचण्डिकाऽर्चनम् । कुरुध्वंयदियं सत्व घात पातकिनी सदा ।। स प्रभावा प्रभो! देवी, नार्च्यते यदि तद् ध्रुवम। हन्ति न: स कुटुम्बेन, प्येवं प्राहुरुपासका: ॥ अहं रक्षा करिब्यामि, त्युक्ते सूरिभिरर्चनात् । निवृता: श्रावका: सर्वे, कुप्यतिस्माथ सा गुरौ । छलं विलोकयन्त्यस्थात्सा गुरुणा महर्निशम् । सायं ध्यान विहोनानां, नेत्र पीड़ाय कल्पयत् ।। अज्ञान भाव विहितोऽपराधः क्षम्यतां मम । न विधास्ये पुन: स्वामि, नेवं जातु प्रसीद नः ।। सूरि रूचे कथं रोष: ? सऽऽहमत्सेवकान् भवान् । अरक्षयन्मदभीष्टं, मदुक्तं चेत्करिव्यसि ॥ लब्धेऽभीष्टं प्रभो, वश्याते ऽन्वयिनामपि । भवित्रीति वदन्ती ताँ, जगुराचार्य पुंगवाः ।। निज प्रतिज्ञा वचने, स्थिरी भाण्यं त्वया सदा । कड़ड़ा मड़ड़ा देवि दास्ये तत्र रतिं कृथाः ॥ प्रतिज्ञाय गुरूक्तं तद्, देवि सद्यस्तिरोदधे ।
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