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101 शिष्य हरिभद्रसूरि (याकिनी) ने प्राकृत-अपभ्रंश में चौबीस तीर्थंकरों के जीवनचरित लिखे। चन्द्रगच्छीय मुनिरत्नसूरि ने वि.स. 1235 में आगामी तीर्थंकर अभयस्वामी का चरित्र लिखा ।तपागच्छ के ओमप्रभसूरि ने 'सुमतिनाथ चरित', 'सूक्ति मुक्तावलि', 'शतार्थकाव्य', कुमारपाल प्रतिबोध ने संस्कृत में रचना की।
___ हेमचंद्रसूरि ज्ञान के महासमुद्र माने जाते हैं ।' हेमचंद्र ने ‘शन्दानुशासन', 'छन्दानुशासन', 'काव्यानुशासन' और 'लिंगानुशासन' के साथ कुमारपाल चरित' नामक प्राकृत काव्य और महाकाव्य संस्कृत में लिखा। संस्कृत भाषा में 'त्रिषष्ठि शलाका पुरिष चरित' लिखकर जैनमत में एक युगान्तकारी कार्य किया।
जिनदत्तसूरि का वि.सं. 1265 में प्रादुर्भाव हुआ। आपने हजारों सद्गृहस्थों को दीक्षा दी। विजयसिंह सूरि के शिष्य वर्द्धमान सूरि ने वि.स. 1299 में 4894 श्लोकों में वासुपूज्य चरित' की रचना की।
विजयसेन सूरि ने सं 1288 में प्राचीन गुजराती (अपभ्रंश मिश्रित) में ‘एवंता मुनिरासु' की रचना की। हर्षपुर गच्छीय नरचन्द्रसूरि ने 'कथा रत्नाकर' में धर्मकथाओं का संग्रह किया। नरेन्द्रप्रभसूरि ने 'अलंकार महोदधि' नामक ग्रंथ की रचना की । चन्द्रगच्छीय हरिभद्रसूरि के शिष्य बालचंद्र ने 'बसन्त विलास' महाकाव्य और 'करुणा वज्रायुध' नाटक की रचना की। आचार्य वीरसूरि के शिष्य जयसिंह सूरि ने हम्मीर मर्दन' नामक नाटक की रचना की। राजगच्छाचार्य भागरचंद्र सूरि के शिष्य आचार्य माणिक्य चंद्रसूरि ने मम्मट के 'काव्य प्रकाश' पर टीका लिखी। 'शांतिनाथ चरित' और 'पार्श्वनाथ चरित' महाकाव्य आपकी रचना कौशल के ज्वलंत प्रमाण है।
उपाध्याय चंद्रतिलक जी ने संवत् 1312 में 'अभयकुमार चरित्र' की रचना की। 14वीं शताब्दी में राजशेखर ने 'स्याद्वाद कलिका', 'रत्नाकरावतारिका', 'षटदर्शन सम्मुच्चय', 'प्रबन्धकोष' आदि ग्रंथों से साहित्य का प्रवर्तन किया।
कृण्णर्षि गच्छ के जयसिंह सूरि ने संवत् 144 में 'कुमारपाल चरित' की रचना की। महेन्द्रसूरि ने संवत् 1427 में 'यंत्रराज' नामक ग्रंथ लिखा। रत्नशेखर सूरि ने संवत् 1498 में विपुल साहित्य का सर्जन किया। आचार्य जयशेखर सूरि ने संवत् 1496 में 'न्यायमंजरी', 'जैनकुमार सम्भव', और 'उपदेशमाला' नामक तीन ग्रंथों के द्वारा जैन साहित्य को विशेष दिशा प्रदान की। आचार्य मेरुतुंग ने वि.स. 1449 में आगमों का साहित्य क्षेत्र में अवतरण किया। कुलमण्डन ने वि.स. 1443 में 'प्रज्ञापनासूत्र', 'विचारामृतसार' और 'जयानंद चरित्र' आदि श्रेष्ठतम कृतियों की रचना की। श्री जयचंदसूरि की ‘सम्यक्त्व कौमुदी' और जयशेखरसूरि की 'प्रबोध चंद्रोदय' जैन साहित्य के गगन के चमकते हो नक्षत्र हैं। आचार्य मेरूतुंग के शिष्य मागिक्यसुन्दर और माणिक्य शेखर ने 'आचरांगसूत्र', 'उत्तराध्ययन', 'आवश्यकसूत्र' और 'कल्पसूत्र' पर नियुक्तियां लिखी। इस तरह इस युग को हम साहित्यसर्जन का युग भी कह सकते हैं। साहित्य सर्जन की दृष्टि से यह युग हरिभद्रसूरि के युग से पूरी तरह प्रभावित है।
1. मुनि सुशील कुमार, जैनधर्म का इतिहास, पृ239 2. वही, पृ 250
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