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डूबा हुआ राजपरिवार और समस्त उपकेशनगर आनन्दित हो उठा।'
'इस अद्भुत घटना से प्रभावित होकर राजा, मंत्री, उनके परिजनों और पौरजनों आदि ने एक बहुत बड़ी संख्या में जैनधर्म स्वीकार किया और उन सबके ओसिया निवासी होने के कारण नये जैन बने लोगों की 'ओसवाल' से प्रसिद्धि हुई ।
'यह भी कहा जाता है कि इस अद्भुत घटना से प्रभावित होकर राज्य की अधिष्ठायिका चामुण्डा देवी को भी - जिसे कि बलि दी जाती थी, आचार्य रत्नप्रभसूरि ने सम्यक्त्वधारिणी बनाया और सच्चिका नाम देकर उसे ओसवालों की कुलदेवी के रूप में प्रतिष्ठित किया। देवी ने केवल पशुओं की बलि लेना ही नहीं छोड़ा अपितु लाल रंग के फूल भी वह पसन्द नहीं करती थी।'
'उपकेशगच्छ पट्टावली में आचार्य रत्नप्रभसूरि के इस प्रकार के अनेक चमत्कारों की घटनाओं का उल्लेख किया गया है। कहा जाता है कि आपने 1,80,000 अजैनों को जैन धर्मावलम्बी बनाया और वीर निर्वाण सं. 84 में स्वर्ग प्राप्त किया ।'
'रत्नप्रभसूरि के पश्चात् यक्ष देवसूरि आदि के क्रम से उपकेशगच्छ की आचार्य परम्परा अद्यावधि अविच्छिन्न रूप से चलती हुई बताई गई है।'
'माहेश्वर कल्पद्रुम ग्रंथ में ओसवालों के होने इस तरह लिखा है,
'श्री वर्द्धमान जिन पछै वर्ष बावन पद लीधो रत्नप्रभसूरि नाम तस गुरुव्रत दीधो, भीनमाल सूं उठिया जाय ओसियां बसाणां क्षत्री हुआ शाख अठार उठै ओसवाल कहाणां, एक लाख चौरासी सहस्रधर, राजपूत प्रति बोधिया, रतनप्रभू ओस्या नगर ओसवाल जिण दिन किया । ' 2
रत्नप्रभसूरीश्वरः ऐसा माना जाता है कि रत्नप्रभसूरीश्वर जी का रधनुपुर नगर के राजा महेन्द्रचूड़ की महादेवी लक्ष्मी की रत्नकुक्ष से आपका जन्म हुआ। आपका नाम रत्नचूड़ रखा गया था। राजा रत्नचूड़ ने अपने पुत्र को राजगद्दी सौंप कर 500 विद्याधरों के साथ आचार्य स्वयंप्रभसूरि के चरणकमलों में दीक्षा धारण कर ली। आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने उन मोक्षार्थियों को दीक्षा देकर राजा रत्नचूड़ का नाम रत्नप्रभ, शेष पांच सौ मुनियों को रत्नप्रभ का शिष्य बना दिया । तदनन्तर मुनि रत्नप्रभ गुरुचरणों की सेवा आराधना करते हुए क्रमश: 12 वर्ष निरन्तर ज्ञानाभ्यास कर द्वादशांग अर्थात् सकलागमों के पूर्णत: ज्ञाता बन गये । इतना ही क्यों, आचार्य पद योग्य सर्वगुण भी प्राप्त कर लिये, अतः आपका भाग्य रवि मध्यान्ह के सदृश चमकने लग गया। आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने अपनी अंतिमावस्था और मुनिप्रभ की सुयोग्यता देखकर वीरात् 52 वें वर्ष में मुनिरत्नप्रभ को आचार्य पद से विभूषित कर अपना सर्वाधिकार उनको सौंप दिया । 3
1. आचार्य हस्तीमल जी म.सा., जैनधर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, पृ 379-380
2. उपाध्याय श्री रामलालजी, महाजनवंश मुक्तावली, पृ13
3. मुनि श्री ज्ञानसुन्दर जी महाराज, भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, पूर्वार्द्ध, पृ 62
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