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60वें पट्टधर
17. श्री विजयदेव सूरि 18. श्री विजयसिंह सूरि
61 वें पट्ट
इसके पश्चात् साधु परम्परा सत्यविजयगणी से प्रारम्भ हो गई ।
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जैनमत - प्रवर्तनकाल से प्रसारकाल तक
इस प्रकार जैनमत को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह कह सकते हैं कि 'पूर्व महावीर युग' में भगवान ऋषभदेव से जैनमत का प्रवर्तन हुआ, दूसरे तीर्थंकर से लेकर तेबीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के युग को हम जैनमत का प्रवर्द्धन काल कह सकते हैं। भगवान महावीर ने जैन के इतिहास में अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से एक युगान्तर उपस्थित किया, इसलिये महावीर के आविर्भाव से लेकर श्रुतकेवलि भद्रबाहु के काल को 'महावीर युग' की संज्ञा दे सकते हैं। महावीर युग को जैनमत का विकासकाल कह सकते हैं। भगवान महावीर के पश्चात् 'महावीरोत्तर युग' को हम ‘जैनमत के इतिहास का प्रसारकाल' कह सकते हैं । जैनमत के इस प्रसारयुग ने जैनमत ने कितने ही उतार चढ़ाव देखे। दो हजार वर्षों के इस लम्बे अन्तराल में 3 वाचनाएं हुई, आगमों की रचना हुई और आगमों की रचना के साथ ही संघभेद का बीज पड़ा और फिर संघभेद स्थायी हो गया। इस युग में जैनमत का उत्कर्ष भी हुआ और अपकर्ष भी । चैत्यावास की परम्परा में जैनमत का अपकर्ष था । चैत्यावास के विरुद्ध विरोध का बीज बोया हरिभद्र सूरि ने और क्रांतिका शंखनाद किया खरतरगच्छ के आचार्यों ने। सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह के आविर्भाव ने जैनमत के इतिहास में वैचारिक क्रांति का सूत्रपात हुआ। लोंकाशाह के पश्चात् श्वेताम्बर जैन परम्परा - तीन स्वतंत्र परम्पराओं- स्थानकवासी, तेरापंथी और मंदिर मार्गी धाराओं में बहती रही । तेरापंथी परम्परा के अतिरिक्त स्थानकवासी परम्परा और श्वेताम्बर मंदिर मार्गी परम्पराओं ने कितने ही सम्प्रदायों / गच्छों को जन्म दिया, इसलिये हरिभद्रबाहु के पश्चात् श्वेताम्बर जैन परम्परा को हम विविध सम्प्रदायों और गच्छों का काल भी कह सकते हैं ।
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ओसवंश: बीजारोपण से उत्कर्ष तक
ओसवंश का स्रोत जैनमत और इसके सूत्रधार जैनाचार्य रहे हैं। भगवान महावीर के युग को हम ओसवंश की दृष्टि से बीज वपन काल, किन्तु महावीरोत्तर युग में ओसवंश का क्रमशः प्रवर्तन, प्रवर्द्धन, विकास और प्रसार देख सकते हैं ।
जैनाचार्यों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में ओसवंश के प्रवर्त्तन, प्रवर्द्धन, विकास, प्रसार और उत्कर्ष में योग दिया। इस जातिविहीन धर्म ने एक नयी संस्कृति की रचना करने के लिये कभी प्रत्यक्ष रूप में और कभी परोक्ष रूप में ऐसी जैन जातियों का निर्माण किया, जो जैन दर्शन के अनुरूप एक नयी अहिंसामूलक और मूल्य परक जीवन शैली को आत्मसात कर नयी संस्कृति की रचना कर सके ।
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महावीरयुग में उपकेशगच्छ के सप्तम आचार्य रत्नप्रभु ने महाजनवंश के रूप में ओसवंश का बीज डाला और फिर महावीरोत्तर युग के अनेक आचार्यों और मुनियों ने प्रत्यक्ष रूप से भी अनेक गोत्रों की प्रतिष्ठापना करके ओसवंश के प्रवर्त्तन, प्रवर्द्धन और विकास में योग दिया।