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पन्द्रहवीं शताब्दी में यही चैत्यावास परिवर्तित होकर यतिसमाज के रूप में दृष्टिगोचर होने लगा। उपलब्ध साहित्य के अवलोकन से ज्ञात होता है कि विक्रमसंवत् 1285 में चैत्यावास सर्वथा बन्द हो गया और मुनियों ने उपाश्रय में उतरना प्रारम्भ कर दिया।'
चैत्यवासी परम्परा के कारण जैन धर्मावलम्बियों का एक बहुत बड़ा भाग धर्म की मूल आध्यात्मिकता से भटक गया। अनहिलपुर पट्टन के महाराज दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों की पराजय के साथ ही चैत्यवासियों का पतन प्रारम्भ हो गया और गुजरात में उसका गढ़ ढहना प्रारम्भ हो गया। भट्टारक परम्परा
इसी चैत्यवासी परम्परा के समानान्तर आचार्य देवद्धिगण क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के पूर्व वीर निर्वाणसंवत 840 के आसपास ही भट्टारक परम्परा में नसियां (निसिहियां-निषिधियां), बस्तियं (वसदियां) आदि नामों से अभिहित किया जाने लगा। इन्होंने जैन कुलों के बालकों को शिक्षण देना प्रारम्भ किया। इन शिक्षण संस्थानों ने जैनविद्या का प्रशिक्षण दिया गया। दिगम्बर परम्परा के आचार्य कुदकुन्द के समय चैत्यवासी भट्टारक आदि परम्पराएं लोकप्रिय हो चुकी थी। आचार्य कुन्दकुन्द का समय वीर निर्वाण समय 1000 तदनुसार विक्रम संवत् 530, ईस्वी सन् 473 माना जा सकता है । भट्टारक परम्परा भी अपने उत्कर्षकाल से अपकर्षकाल तक चैत्यवासी परम्परा के ही पद चिह्नों पर चलती रही और फिर उत्तर विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में पूर्णत: विलुप्त हो गई, किन्तु दक्षिणी प्रदेशों में अब भी विद्यमान है। हरिभद्रकाल
साहित्यरचना और संक्रांतिकाल के चैत्यवासी परम्परा के विरोध के स्वर को मुखरता प्रदान करने के लिए हरिभद्रसूरि का आविर्भाव हुआ।
हरिभद्रसूरि महा मेधावी आचार्य थे। हरिभद्रसूरि को जैन परम्परा में साहित्य स्रष्टा और समाज व्यवस्थापक के नाम से ख्याति प्राप्त है। जिनविजयजी ने इनका समय वि.सं. 757 से 857 निश्चित किया है। चित्रकूट नगरी में हरिभद्र राजपुरोहित थे। हरिदत्त जिनदत्त सूरि द्वारा दीक्षित हुए और वे अपने को याकिनी महत्तरा के धर्मगुरु मानने लगे। आचार्य जिनदत्त सूरि ने हरिदत्त के विद्वत्ता से प्रसन्न होकर इन्हें आचार्यत्व प्रदान किया।
'सम्बोधिप्रकरण' में हरिदत्त ने चैत्यावास की शिथिलाचार का चित्र खींचा है। इनके अनुसार, आजकल संयम और त्याग की असिधर पर चलने वाले जैन साधु चैत्य और मठ में निवास करते हैं। पूजा के लिये आरती करते हैं। जिनमंदिर और पौषधशाला चलाते हैं। मंदिर का देवद्रव्य अपने उपयोग में लाते हैं।
1. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय खण्ड, पृ628 2. सम्बोधि प्रकरण, पृ13-19
चेइपमढा इवासं पूयारंभाह निश्चसित्तं, देवाइ दव्व भोगं जिणहर सालाइ करणं च। मय किचं जिणपूया परूवणं मय धणाणं जिण दरणे, गिहिपुरद्यो यअंगाइपवयण कहणं धनट्ठार।
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