________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
96 उदारतापूर्वक आर्थिक दान देकर चैत्यवासी संघ को सुदृढ़, सक्षम और सबल बनाया। इन्हें राज्याश्रय भी मिला। राज्याश्रय प्राप्त चैत्यवासी परम्पराभारत के विभिन्न भागों में प्रसूत हुई, फैली
और फली फूली। 'वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण से वीर निर्वाण संवत् 1554 तक यही स्थिति रही कि चैत्यवासी परम्परा ही लोकदृष्टि से जैनधर्म की सच्ची प्रतिनिधि और मूल परम्परा के रूप में मान्य रही।'' इन्होंने राजाज्ञाएं प्रसारित कर मूल श्रमण परम्परा के साधु साध्वियों का अपने क्षेत्रों में प्रवेश तक निषिद्ध करवा दिया।
श्री सोहनराज भंसाली के अनुसार चैत्यवासी परम्परा का विकसित रूप विक्रम की पांचवी शताब्दी में परिलक्षित हो चुका था। मुनि जयंत विजय जी के अनुसार, 'दुष्काल राज्यक्रांति व राज्यों के उथलपुथल व अन्य मतावलम्बियों के अत्याचारों के कारण जैन समाज के साधुओं ने अपना स्वरूप समेट लिया। उन्होंने छोटे छोटे समुदाय में अपना कार्यक्षेत्र बनाया। वे लोगों की रुचि व रुझान को ध्यान में रखकर शिथिलाचारी बने । जंत्र मंत्र का सहारा लिया। ज्योतिष, निमित्त, शिक्षा, औषधि उपचार आदि का कार्य भी करने लगे। इन सब कार्यों का मुख्य स्थल चैत्यों में था।' इनका धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में वर्चस्व था। यह जैनधर्म के वैचारिक पतन का प्रतीक भी थी। जिनेश्वर सूरि ने फिर इसके प्रतिकार के निमित्त इन चैत्यवासी यतियों के विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरू किया। इन्होंने सुविहित विधिमार्ग का नया गण स्थापित किया। इन्होंने पाटन के राजा दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवास के समर्थक सुराचार्य के विरुद्ध शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की। महाराज दुर्लभ राज ने इन्हें 'तमखरा छो' कहा, जिसके बाद में खरतरगच्छ का प्रादुर्भाव हुआ। मुनि जिनविजय के अनुसार प्रभावक चरित्र' के वर्णन से यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सुराचार्य उससमय चैत्यवासियों के एक प्रसिद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। वे पंचासरा पार्श्वनाथ चैत्य के मुख्य अधिष्ठाता थे। स्वभाव से वे बड़े उग्र और वाद विवाद प्रिय थे। जिनेश्वरसूरि और उनके शिष्यसमुदाय ने चैत्यवासी परम्परा का उन्मूलन कर श्वेताम्बर जैन समाज में एक नये युग का प्रवर्तन किया। यदि उस समय ऐसा नहीं होता तो ये जैन मंदिर भोगविलास और भ्रष्टाचार के मठ बन जाते ।
वीर निर्वाण की नवीं शताब्दी में चैत्यवासियों में कुछ शिथिलाचारी मुनि उग्रविहार छोड़कर मंदिरों में परिपार्श्व में रहने लगे। देवद्धिगणी के दिगंत होते ही इनका सम्प्रदाय शक्तिशाली हो गया। विद्याबल और राज्यबल दोनों के द्वारा इन्होंने उग्रविहारी श्रमणों पर पर्याप्त प्रहार किया।' चैत्यवासी शाखा के उद्भव के साथ एक पक्ष, विधिमार्ग या सुविहित मार्ग कहलाया
और दूसरा पक्ष चैत्यवासी पक्ष ।' 'तपागच्छ पट्टावली' के अनुसार “वीर निर्वाण संवत् 882 के पश्चात् चैत्यस्थिति अथवा चैत्यावास की स्थिति हुई। आचार्य हरिभद्र ने चैत्यावास जन्य तात्कालिक विकृतियों का अपने ग्रंथ 'सम्बोधि प्रकरण' में उल्लेख किया है। विक्रम की
1. ओसवाल वंश, अनुसंधान के आलोक में, पृ 34 2. मुरिजिनविजय, कथाकोश, पृ43 3. जैन परम्परा का इतिहास, पृ68-69 4. वही, पृ69 5. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय खण्ड, पृ 624
For Private and Personal Use Only