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महावीर के शब्द किसी भी तरह उचित प्रतीत नहीं होता। शुब्रिंग की राय थी कि जो आध्यात्मिक पथ के मूल अर्थात् शुरू में स्थित हैं, उनके लिये जो मूल सूत्र थे, उन्हें मूलसूत्र कहा गया था । श्री वेबर का कहना था कि यह नाम काफी अर्वाचीन है और मूलसूत्र का मतलब सूत्र से अधिक कुछ नहीं है । किन्तु ये सूत्र द्य रूप नहीं है, किन्तु पद्यों में हैं। उनमें 'उत्तराध्ययन' और 'दशवैकालिक' विशेष प्राचीन है।
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(1) आवश्यक सूत्र - इस सूत्र में 6 अध्याय हैं। इनमें सामाजिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान नामक 6 आवश्यकों का कथन है। ये प्रतिदिन आवश्यक है, इसलिये इनका नाम आवश्यक पड़ा। आवश्यक सूत्र पर आवश्यक नियुक्ति नामक व्याख्या है, जिसे भद्रबाहु रचित माना जाता है। इसकी दो प्राचीन टीकाएँ हैं- एक चूर्णि और एक हरिभद्रीय वृत्ति ।
(2) दशवैकालिक - विकाल में पढ़ा जा सकने का कारण यह वैकालिक कहा जाता है। इसके दस अध्ययन हैं, इसलिये इसे दशवैकालिक कहा गया है। इसकी नियुक्ति में आचार्य शय्यंभव को दशवैकालिक का रचयिता बताया गया है । दशवैकालिक प्राचीन है, श्वेताम्बर के साथ दिगम्बर सम्प्रदाय में भी इसकी मान्यता रही है। यापनीय संघ के अपराजित सूरि ने भी इसकी टीका रची है। यह अन्वेषणीय है कि इसका प्राचीन रूप यही था या भिन्न ।
दस है
( 3 ) उत्तराध्ययन- इसका अध्ययन आचरांग के पश्चात होता था, इसलिये इसे 'उत्तराध्ययन' कहा गया। यह भी कहा जाता है कि महावीर ने अपने निर्वाण के अंतिम वर्षामास में छत्तीस प्रश्नों का उत्तर दिया था, उत्तराध्ययन उसी का सूचक है। डा. विंटरनीटूज के अनुसार 'वर्तमान उत्तराध्ययन' अनेक प्रकरणों का संकलन है और वे प्रकरण विभिन्न समयों में रचे गये थे। उसका प्राचीनतम भाग वे मूल्यवान पद्य है जो प्राचीन भारत की श्रमणकाव्य शैली से सम्बद्ध है और जिनके सदृश पद्य अंशत: बौद्ध साहित्य (धम्मपद) में भी पाये जाते हैं।'' इस प्रकार यह एक उपदेशात्मक और कथात्मक संग्रह, जिसमें प्राचीनता का पुट भी नहीं है। एक नियुक्ति है, जिसे भद्रबाहु की कहा जाता है। एक चूर्णि है। शांतिसूरि और नेमिचंद्र की संस्कृत टीकाए हैं। हर्मन जेकोबी ने इसका अनुवाद जर्मनी में किया, जो 'द सेक्रेड बुक ऑफ द ईस्ट' का 45वां खण्ड है।
दस पन्ना
יין
प्रकीर्ण फुटकर ग्रंथ है। जैन धर्म सम्बन्धी विविध विषयों का वर्णन है। इनकी संख्या
1. चतु: शरण- इसमें बताया है कि अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्म - इन चार की शरण लेने से पाप की निन्दा और पुण्य की अनुमोदना होती है।
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2. आतुर प्रत्याख्यान - इसमें बताया है कि पंडित को रोगावस्था में क्या क्या प्रत्याख्यान करना चाहिये ।
1. History of Indian Literature, Part II Page, 466-467