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2. सूत्रकृतांग
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इसमें दो श्रुतस्कन्ध है। दोनों सूत्रों में 23 अध्ययन है - 16+71 इसमें दो स्कन्ध है, द्वितीय स्कन्ध 5,6 को छोड़कर गद्य में हैं। इसमें चार्वाक, बौद्ध और नियतिवाद आदि की समस्या है। बेवर इसे बहुत प्राचीन मानते हैं।' 'सूत्रकृतांग' में साधुओं की धार्मिक चर्या का वर्णन है। प्रो विण्टरनीटूज का कथन है कि प्रथम स्कन्द प्राचीन है और दूसरा स्कन्द एक परिशिष्ट है, जो बाद में जोड़ दिया गया है।' इस अंग पर एक नियुक्ति, चूर्णि और शीलांक की टीका है।
3. स्थानांग सूत्र
इसमें जीव- अजीव, स्वसमय, परसमय, लोक अलोक और लोकालोक आदि का व्यवस्थित वर्णन है । दिगम्बरों के अनुसार इसमें 42000 पद और श्वेताम्बर के अनुसार बहत्तर हजार पद हैं। 'स्थानांग सूत्र' की टीका संवत् 1120 में नवांग वृत्तिकार अणहिलपाटन के शिष्य यशोदेवगण की है।
4. समवायांग
समवाय में सब पदार्थों के समवाय पर विचार किया गया है। यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों के समवाय का वर्णन करता है। इस अंग की एक विशेषता है- नन्दी सूत्र का निर्देश पाया जाना | नन्दी और समवाय में पाये जाने वाले समान वर्णनों का मूलाधार नन्दी है। डा. बेवर के अनुसार समवाय से नन्दी की विषयसूची संक्षिप्त है। डा. विंटरनीज के अनुसार "इस बात के प्रमाण हैं कि या तो वर्तमान समवायांग की रचना बाद में की गई या उसमें कुछ भाग बाद में रचे गये । "4
5. व्याख्या प्रज्ञप्ति
है या नहीं इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का समाधान करता है। उपलब्ध पाँचवें अंग भगवती भी कहते हैं। इसमें 41 शतक हैं। प्रारम्भिक 20 शतकों को पौराणिक बाना पहनाया गया है और उनमें ऐसा तंतु प्रतीत नहीं होता जो सबको जोड़ता हो। उनमें भगवान महावीर के कार्यों और उपदेशों के विविध उल्लेख हैं। राजगृही के राजा श्रेणिक के समय में भगवान महावीर अपने प्रथम शिष्य गौतम इन्द्रभूति से वार्तालाप करते हैं। 21 से विषय बदल जाता है। 31 से 41 तक सत्, त्रेता, द्वापर और कलियुग आदि का वर्णन है। इसमें पार्श्वनाथ का वर्णन नहीं है, किन्तु इससे पता चलता है कि पार्श्व के अनेक अनुयायी महावीर के शिष्य बने ।
6. ज्ञात्धर्म कथा
इसमें बहुत से आख्यान और उपाख्यानों का कथन है। इसका प्राकृत नाम श्वेताम्बर साहित्य में णायधम्म कहा और दिगम्बर साहित्य में णातधम्म कथा है। इसमें अनेक कथाएं हैं।
1. Indian Antiquary, Part 17, Page 344-345
2. Winternitge, History of Indian Literature, Part VI, Page 440
3. Dr. Webar, Indian Antiquary, Part 18, Page 374
4. History of Indian Literature, Part VI, Page 442
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