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90 वलभी वाचना का नाम दिया है। मूल में गणधरों से ग्रंथित सूत्रों को देवद्धिगणि ने पुन: संकलित किया। अत: इसी कारण शास्त्र के कर्ता देवर्द्धि क्षमाश्रमण कहलाए।
इस प्रकार आगम रचनाकाल के साथ संघभेद से श्वेताम्बर-दिगम्बर मत के रूप में अखण्ड जिनशासन बँट गया। आगमों के पुनरुद्धार ने श्वेताम्बर परम्परा को सुदृढ़ भित्ति पर स्थापित कर दिया।
डा. याकोबी के अनुसार, 'सर्वसम्मत परम्परा के अनुसार जैन आगम अथवा सिद्धांतों का संग्रह देवर्द्धि की अध्यक्षता में वलभी सम्मेलन में हुआ। कल्पसूत्र में उसका समय वीर निर्वाण 980 या 993 (454 या 367) दिया गया है। नाथूराम प्रेमी ने एक प्राचीन गाथा को प्रस्तुत किया है।
वलहिपुरंमि नयरे देवडिढय भुह सयल संघेहि ।
पुव्वे आगमु हिहिद नव सय असीआणु वीराड ।।
अब जो जैन आगम या अंग साहित्य उपलब्ध है, उसे दिगम्बर जैन सम्प्रदाय मान्य नहीं करता, यह सबको विदित है। दिगम्बर परम्परा में वीर निर्वाण में 683 वर्ष पर्यन्त अंगज्ञान की परम्परा प्रवर्तित रही है, किन्तु उसे संकलित करने या लिपिबद्ध करने का कभी कोई सामूहिक प्रयत्न किया हो, ऐसा आभास नहीं मिलता।
विंटरनीट्ज की मान्यता है 'यद्यपि स्वयं जैनों की परम्परा उनके आगमों के बहुत प्राचीन होने के पक्ष में नहीं है, तथा कम से कम उनके कुछ भागों की अपेक्षाकृत प्राचीनकाल का मानने में और यह मान लेने में कि देवर्द्धि ने अंशत: प्राचीन प्रतियों की सहायता से और अंशत: मौखिक परम्परा के आधार पर आगमों को संकलित किया, पर्याप्त कारण है।''
बेवर का मत है: 'मौजूदा आगम दूसरी और पाँचवी शताब्दी के बीच रचे गये हैं, किन्तु येकोबी का सुझाव है कि उनका कुछ भाग पटना से ही अपेक्षाकृत थोड़े परिवर्तन के साथ
आया है।'2 आगे लिखते हैं, किन्तु यह अधिक सम्भव है कि प्राचीन साहित्य अंशत: सुरक्षित रहा है। यद्यपि यह निस्संदेह है कि संघभेद के समय से श्वेताम्बर साधुओं के द्वारा अपने सम्प्रदाय के अनुकूल इसमें संशोधन की प्रवृत्ति चालू रही। ....आगमों में श्वेताम्बरों की इस प्रवृत्ति के स्पष्ट चिह्न पाये जाते हैं।
देवर्द्धि क्षमाश्रमण ने जैन सूत्रों को पुस्तकारुढ करके एक कीर्तिमान स्थापित किया। उन्होंने इन आगमों को अध्यायों और अध्ययनों में विभक्त किया और ग्रंथगणण (32 अक्षर का एक श्लोक) की पद्धति चालू की।
वस्तुत: यह ओसवंश का उद्भवकाल भीकहा जा सकता है। श्वेताम्बर परम्परा और ओसवंश की धारा समानान्तर रूप से बही है।
1. Winternitge, History of indian Literature, Part II Page 431-434 2. J.N. Farguhar, An Outline of the Religion & Literature, Page 76 3. वही, पृ120-121
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