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आगमों को पुस्तकारूढ़ किया।
कई विद्वान देवर्द्धि क्षमाश्रमण की आगमवाचना न कहकर आगम लेखन ही कहते हैं । इन्होंने मतभेद में नागार्जुनीय वाचना के अनुसार ही आगमों को पुस्तकारूढ किया । अत: इसे आगम वाचना के साथ आगम लेखन मानना उचित है ।
उस समय आचार्य नागार्जुन की परम्परा के आचार्य कालक (चतुर्थ) और स्कन्दिली (माथुरी) वाचना के प्रतिनिधि आचार्य देवद्धिक्षमाश्रमण थे । मेरूतुंग ने भी स्पष्ट कहा है कि देवद्धिगणि ने सिद्धान्तों को विनाश से बचाने के लिये पुस्तकारूढ किया । '
इसी आगमकाल ने जैनमत ने अनेक राजाओं का संरक्षण प्राप्त किया। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त जैन था । विसेंट स्मिथ के अनुसार “मैं अब विश्वास करता हूँ यह परम्परा सम्भवतः मूलरूप में यथार्थ है कि चन्द्रगुप्त ने साम्राज्य का परित्याग कर जैन मुनि का पद अंगीकार किया ।" 2 इतिहासकार डा. काशीप्रसाद जायसवाल भी मानते हैं कि पाँचवी सदी के जैन ग्रंथ और उसके पश्चात् के शिलालेख यह प्रमाणित करते हैं कि चन्द्रगुप्त जैन सम्राट था। चन्द्रगुप्त ही जैन साधु बनकर विशाखाचार्य कहलाए। श्रमण बेलगोला के चन्द्रबस्तीनाम के चन्दगिर पर अवस्थित मंदिर की दीवारों पर सम्राट चन्द्रगुप्त के जीवन को अंकित करने वाले चित्र हैं। दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ 'तिलोयपण्णति' में स्पष्ट लिखा है कि मुकुटधर राजाओं में अंतिम चन्द्रगुप्त नरेश ने जिनेन्द्र दीक्षा ग्रहण की। इसके पश्चात् मुकुटधारी किसी नरेश ने प्रव्रज्या धारण नहीं की और न ही करेगा । "3
कलकत्ता विश्वविद्यालय के बसन्तकुमार चटर्जी ने माना है कि चंद्रगुप्त भद्रबाहु के अभिन्नात्मा थे। प्रो. हर्मन याकोबी चंद्रगुप्त को अकाट्य प्रमाणों से जैन सिद्ध कर चुके हैं।
1. मेरुतुंग थेरावली, टीका 5
विशाखाचार्य का आचार्य स्थूलिभद्र से मतभेद था, किन्तु विशाखाचार्य ने अलग सम्प्रदाय स्थापित नहीं किया, किन्तु यहीं से जैनसंघ में शाखाएं फूटी। मुनि सुशीलकुमार के अनुसार 'श्वेताम्बर और दिगम्बर शब्द बहुत पीछे से चले हैं, किन्तु मुझे यह बात अधिक समीचीन लगती है कि स्थूलिभद्र और विशाखाचार्य का मतभेद तो पहले ही खड़ा हो गया था, कालान्तर में दिगम्बर और श्वेताम्बर कहलाई । '4
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श्री वीरादनु सहाविंशतमः पुरुषो देवद्धिगणि, सिद्धान्तान् अव्यवच्छेदाय पुस्तकाधिरूढान कार्णीत ।
2. Vincent Smith, History of India
3. faciter quorfa, 4/1481
I am now disposed to believe that the tradition is possibly true in its main outhlines and that Chandragupta realy abdicted and became Jain ascetic.
मड्डधरेसु चरितो जिण दिक्खं धर दि चन्दगुत्तोय | ततो मडड़धरा दुप्प व्वजनं णेय गिहंति ॥
4. मुनि सुशील कुमार, जैन धर्म का इतिहास ( संवत् 2016 ), पृ 129
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