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हरिभद्र स्पष्ट कहते हैं कि ये मुनि श्रावकों को शास्त्रों का रहस्य नहीं बताते । मुहूर्त निकालते हैं। ज्योतिष से शुभाशुभ फल निकालते हैं । रंगीन सुगंधित और धूपित वस्त्र पहनते हैं। स्त्रियों के सामने गाते हैं। साध्वियों का लाया हुआ आहार करते हैं। धन का संचय करते हैं। केश लोच नहीं करते। मिष्टाहार करते हैं। ताम्बूल, घी, दूध, फलफूल का उपयोग करते हैं। वस्त्र, वाहन-शैया रखते हैं। कंधे पर बिना कारण कटिवस्त्र रखते हैं। तेल मर्दन करते हैं। स्त्रियों का संसर्ग करते हैं। मृत गुरुओं के दाह स्थल पर पादपीठ बनवाते हैं। बलि करते हैं। जिन प्रतिमाएं बेचते हैं। गृहस्थों का बहुमान करते हैं। पैसा देकर बालकों को चेला बनाते हैं। वैद्यकी तंत्र, मंत्र आदि करते हैं।
हरिभद्र सूरि ने 1414 ग्रंथों की रचना की। डा. हर्मन जेकोबी के अनुसार 'सिद्धसेन दिवाकर ने जिस जैन दर्शन की पद्धति का प्रचलन किया, उसे पराकाष्टा तक पहुँचाने वाले तो हरिभद्रसूरि ही है। 2 इन्होंने साम्प्रदायिक अभिनिवेश का प्रवेश नहीं होने दिया। हरिभद्र की दृष्टिधार्मिक उदारता की दृष्टि थी। वे स्पष्ट कहते हैं- दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, बुद्ध हो या अन्य कोई हो, जो भी अपनी आत्मा को समभाव से भावित करता है, वही निस्संदेह मुक्ति प्राप्त करता है। हरिभद्र ने जैन साहित्य को विशाल ग्रंथ राशि अर्पित की। इन्होंने जैन योग साहित्य का सम्पादन किया। वे जैन योग साहित्य के सर्वप्रथम उभावकथे। जहाँ सिद्धसेन दिवाकर जैन तर्कशास्त्र के आद्यप्रणेता थे, तो हरिभद्रसूरि जैन योग शास्त्र के।
हरिभद्रसूरि एक बड़े उदारचेता, महानना, पक्षपात रहित सत्योपासक साधु पुरुष थे।
1.सम्बोधि प्रकरण, पृ13-19
नर यगइहेड जो उस निमित्त तेमीच्छमंत जोगाई। भिच्छ तराय सेवं नीयाण विपाव सहिज्ज वत्थाइ विविद बण्णाई अइसइ सद्दाइ धुवं वासाइ। पहिरजइ जत्थ गणेत गच्छ मूल गुण मुकं अनत्थिड्बसहा इवपुरओगायान्तिजत्थ महिलाणं जत्थ मयार मयारं भणंति अलं सयं दिति । सनिहि महाकम्भं जल थल कुसुमाई सव्व सच्चितं निच्च दुतिवार मोयण विगइल बंगाइ तं बोलं की वो न कुणई लीयं लज्जइ पडिमाइ जल्ल भुवणेइ सोराहणों य दिण्डेद, बंधइ, कडिपइमम कजे, वत्थो वगरण पत्ताइ दव्वं नियणिस्सेण संगहियं गिहिरोहंम्मि यजेसिं ते किणिणो नाण नह मुणिणो। गिहिपुर ओ सज्जायं करंति अण्णोणमेव झूझति सीसाइयाण कजे कलह विवायं उइदूरेति । कि बहुणा मणियेण बालाणं ते इवंति रमणिज्जा
दुक्खाणं पुण एए विरहागा छात्र पाव दहा । 2. जैनधर्म का इतिहास, पृ 201 3. हरिभद्रसूरि
आसम्बरो या सेयम्बरी वा बुद्धो वा अहव अन्नोवा। समभाव मावियप्पा लहेइ मुक्खं न संदेहो ।
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