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प्रत्येक अध्याय एक स्वतंत्र कथा है। इस अंग पर अभय देवकृत टीका है। 7. उपासकाध्ययन
इसमें श्रावक धर्म के लक्षण हैं । इनमें ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लक्षण, उनके व्रतधारण करने की विधि तथा उनके आचरणों के वर्णन है। श्वेताम्बर साहित्य में सातवें अंग का नाम उवासगदश (उपासक दशा) है। इसमें दस अध्ययन में उन उपासकों की कथाएँ हैं, जिन्होंने स्वर्ग प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया। 8. अन्तःकृहश
जिन्होंने संसार का अंत किया उन्हें अन्त:कृत कहते हैं । टीकाकार अभयदेव के अनुसार अन्तकृत अर्थात् तीर्थंकर जिन्होंने कर्मों और कर्मों के फलस्वरूप संसार का अन्त कर दिया, उनकी दशा है। विषय के अनुसार आठ वर्गों को तीन स्तरों में विभाजित किया जा सकता है। 1 से 15 तक वर्ग कृष्ण और वसुदेव सम्बन्धित व्यक्तियों की कथाएं 6 और 7 वर्ग- महावीर के शिष्यों की कथाएं, आठवां वर्ग- रत्नावली, मुक्तावली आदि दस तपों का वर्णन है। 9. अनुन्तरोपपाद दश
उपपाद का जन्म ही जिसका प्रयोजन, उन्हें औपपारिक कहते हैं। इस तरह अनुत्तरों से उत्पन्न होने वाले दस साधुओं का जिसमें वर्णन हो, उसे अनुत्तरोपादिकदश नामक अंग कहते
10. प्रश्नव्याकरण
इसमें लौकिक और वैदिक अर्थ दिये गये हैं। आक्षेप और विक्षेप के द्वारा हेतु और नय के आश्रति प्रश्नों के व्याकरण को प्रश्न व्याकरण कहते हैं। 11. विपाकसूत्र
इसमें सुकृता अर्थात् पुण्य और दुष्कृत अर्थात् पाप के विपाक का वर्णन है।
इस तरह वर्तमान आगम ग्रंथ में से 6 से 11 तक के आगम कथा प्रधान है और वे अपने मूल रूप में नहीं है, किन्तु एकदम परिवर्तित रूप में है। भगवती का रूप सबसे निराला है, उसका संकलन भी उत्तरकाल में हुआ, किन्तु उसमें प्राचीन सामग्री अवश्य है। शेष चार अंग अवश्य ही अपना वैशिष्ट्य रखते हैं, किन्तु वे भी अपने मूलरूप में नहीं है, यह स्पष्ट है।। चार मूलसूत्र
श्री बेवर और विंटरनीज' ने उत्तराध्ययन को प्रथम मूलसूत्र बतलाया है। यह आध्यात्मिक रूप में स्थित है, इसलिये इसे मूल कहा गया है। चार्पोण्टिर' के अनुसार 'स्वयं 1. जैन साहित्य का इतिहास, पृ.671 2. Indian Antiquary, Part 21, Page 309 3. History of Indian Literature, Part VI Page 466 4. Indian Antiquary, Part 21, Page 309
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