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73 करवाया। चौहानों के काल में जैनमत काखूब प्रचार हुआ। जिनदत्त सूरि अर्णेराजका समकालीन था। नाडोल में 960-1252 ई. के बीच चौहानों ने शासन किया। चौहान अश्वराज ने जैनमत स्वीकार किया और राज्य में पशुवध का निषेध किया। इस सम्बन्ध में अनेक शिलालेख उपलब्ध हैं। चावड़ा (Cavadas) और चालुक्यों में भी जैनमत अच्छी स्थिति में रहा। चावड़ा शासक बनराज ने सिलागना सूरि (Silagana Suri) को निमंत्रित किया और अपना समस्त शासन इनके चरणों में रख दिया। इन्होंने यह स्वीकार नहीं किया। इसके बदले वनराज ने अनहिपुरा पाटन में पार्श्वनाथ का एक मन्दिर बनवाया और श्रीमाल और मरुधर देश के व्यापारियों को अनहिलपुरा में बसने के लिये आमंत्रित किया । चालुक्य शासकों जयसिंह और कुमारपाल के काल में जैनमत का व्यापक प्रसार हुआ। जयसिंह के काल में दिगम्बर साधु कुमुदचंद्र और श्वेताम्बर साधु देवसूरि के बीच शास्त्रार्थ हुआ। कुमारपाल ने तो जैनमत स्वीकार कर लिया। भीम द्वितीय के काल में दो शक्तिशाली पुरुषों - वास्तुपाल और तेजपाल ने 1230 ई में माउण्ट आबू में प्रसिद्ध जैनमंदिर का निर्माण करवाया। परमार राजाओं के काल में भी जैनमत की अत्यधिक प्रगति हुई। मालवा के परमार शासक भी जैनमत के प्रति सहानुभूति रखते थे। मेवाड़ सिरोही, कोटा और झालावाड़ इस साम्राज्य के अधीन थे। मालवा के शासक नरोवर्मन के काल में जिनवल्लभ सूरि प्रसिद्ध जैनसाधु थे, जिनकी विद्वत्ता से राजा आतंकित थे। राठौड़ों का हटूण्डी में दसवीं शताब्दी में शासन रहा। वासुदेवाचार्य के परामर्श पर विद्ग्धराज ने एक ऋषभदेव का मंदिर बनवाया और भूमि दान में दी। दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी में भरतपुर में जैनमत का व्यापक प्रचार हुआ। इसी तरह मेवाड़, वाग्देश (डूंगरपुर, बांसवाड़ाप्रतापगढ़) कोटा, सिरोही, जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, जयपुर में जैनमत का व्यपाक प्रचार हुआ। दसवीं शताब्दी में जिनेश्वर सूरि की कृपा से पुत्र प्राप्त होने पर भाटी राजपूतों ने लुद्रवा में पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। जोधपुर में एक ओसवाल खंजाची ने भीमदेव के शासन में 1168 ई में सत्यपुर (सांचोर) में एक मंदिर बनवाया। बीकानेर के महाराज रायसिंह जैनमत के भक्त थे। इन्होंने कर्मचंद्र की प्रार्थना पर अकबर से लूटे गये 1052 मूर्तियां (सिरोही की) पुनः प्राप्त की। जयपुर में कछवाहा शासकों के राज्य में लगभग 50 जैन दीवान रहे। अलवर में ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी की जैन मूर्तियां उपलब्ध हुई है। इस प्रकार राजस्थान में जैनमत का प्रवेश तो महावीर के समय में ही हो गया, किन्तु सातवीं शताब्दी से लेकर आजतक जैनमत का व्यापक प्रसार हुआ। वस्तुत: ओसवाल जाति का उद्भव और नामकरण भी राजस्थान में ही हुआ।
शताब्दियों से गुजरात जैनमत की शक्तिशाली भूमि रही है। ऋषभ और नेमिनाथ ने शत्रुजय और गिरनार में तपस्या की थी। पांचवी शताब्दी में सौराष्ट्र के वल्लभी में एक जैन सम्मेलन हुआथा। 'कुवलयमाला' के अनुसार छठी और सातवीं शताब्दी में यहाँ अनेक जैन मंदिर थे। चालुक्य शासक दुर्लभ राज के काल में वर्द्धमानसूरि और इनके शिष्य जिनेश्वर सूरि हुए। 1024
1. Jain Journal, April 1963, Page 203 2. वही, पृ212
In the 5th century of Christian era, a conference of Jain monks was held at Vallabhi in Saurastra.
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