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लिखा है। यही कथा कुछ परिवर्तन के साथ दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ भद्रबाहु चरित्र' (वि.स. 16 29) में अंकित है।
भट्टारक रत्न नन्दि के 'भद्रबाहु चरित' के अनुसार ‘भद्रबाहु स्वामी की भविष्यवाणी होने पर बारह हजार साधु उनके साथ दक्षिण की ओर विहार कर गये। परन्तु रामल्थ, स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र आदि मुनि उज्जियिनी में ही रह गये। दुर्भिक्ष पड़ने पर उनके शिष्य विशाखाचार्य आदि लौटकर उज्जियिनी आए। उस समय स्थूलाचार्य ने कहा कि शिथिलाचार छोड़ दो। पर उन्होंने क्रोधित होकर स्थूलाचार्य को मार डाला। इन शिथिलाचारियों से अर्धकालक सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इसके बहुत समय बाद उज्जियिनी में चन्द्रकीर्ति नाम का राजा हुआ। उसकी कन्या वल्लभीपुर के राजा को ब्याही गई। उस कन्या ने अधिफालक साधुओं के पास विद्याध्यान किया था, इसलिये वह उनकी भक्त थी। एक बार उसने अपने पति से उन साधुओं को अपने यहाँ बुलाने के लिये कहा। राजा ने बुलाने की आज्ञा दे दी। वे आए और उनका खूब स्वागत सत्कार हुआ। परन्तु राजा को उनका वेश अच्छा न लगा। वे रहते थे नग्न, पर ऊपर वस्त्र रखते थे। रानी ने अपने पति के मन का भाव जानकर साधुओं के पास पहनने के लिये श्वेत वस्त्र भेज दिये। साधुओं ने भी उन्हें स्वीकार कर लिया। उस दिन से सब साधु श्वेताम्बर कहलाने लगे, इनमें जो प्रधान था, उसका नाम जिनचंद्र था।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय की आचार्य परम्परा का आरम्भ श्रुतकेवली भद्रबाहु से न होकर स्थूलचंद्र से होता है। इन्होंने स्थूलभद्र को अंतिम श्रुतकेवली माना है।
दिगम्बर ग्रंथों के अनुसार भद्रबाहु श्रुतकेवली का शरीरान्त वीर निर्वाण संवत् 162 में हुआ। और श्वेताम्बरों का उत्पत्ति वीर निर्वाण संवत् 603 में हुई थी। दोनों के बीच साढे चार सौ वर्षों का अन्तर है। वास्तव में अर्धफालक नाम का कोई सम्प्रदाय नहीं हुआ। ‘भद्रबाहु चरित्र' से पहले किसी भी ग्रंथ में इसका उल्लेख नहीं है।
मथुरा के कंकाली टोले के पास प्राप्त जैन अवशेषों में एक शिलापट्ट पर एक जैन यति कृष्ण की मूर्ति मिली है। कण्ह की मूर्ति वस्त्र पहने होने से उसे श्वेताम्बर मूर्ति कहा जा सकता है, संवत् 95 के साल में वासुदेव का राज्य था, तब की यह होनी चाहिये। 'जैन साहित्य' इतिहास में लिखा है
"आएक जैन स्तूपनो भाग छे जे उक्त मथुराली कंकाली टीला टेकरी मायी निकलेल छ। कुल ते चार आकृतियों (मूर्तियों) छेल्ला चार तीर्थंकर नभि, नेमि, पार्श्व अने वर्धमाननी छे। नीचे ना भागमा कण्हनी मूर्ति ने वस्त्र पह रावेलां होता थी ते श्वेताम्बर मूर्ति मानीशंकाय । आमां आवेल मूल लेख कोई अनिर्णीत लिखिमांछे। आरंभ मां 95 के साल जब वसुदेव का राज्य था, तब की होनी चाहिये।" वुलहट ने माना है कि नेमिणं देवता के बाएं घुटने के पास एक छोटी सी आकृति नंगे मनुष्य की है, जो बाएं हाथ में वस्त्र होने से तथा दाहिना हाथ ऊपर को उठा होने से
1. जैन साहित्य का इतिहास, पृ 378-379 2. पट्टावली समुच्चय, वीरमगांव, गुजरात, 25
योगीन्द्र स्थूलभद्रोऽभूद सान्त्यः श्रुतकेवली
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