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श्वेताम्बर मानते हैं और दिगम्बर मान्यता के अनुसार वीर निर्वाण 609 में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का
प्रारम्भ हुआ । '
उत्तराध्ययन,
दिगम्बर - श्वेताम्बर सम्प्रदाय का बीजारोपण भगवान महावीर के सातवें पट्टधर आचार्य भद्रबाहु स्वामी के काल से जुड़ हुआ है । ये महान् ज्योर्तिधर आचार्य सदा से सर्वप्रिय और सर्वविख्यात रहे हैं। ये दस सूत्रों- आचरांग, सूत्रकृतांग, आवश्यक, दशवैकालिक, : दशाश्रुत स्कन्ध, कल्प, व्यवहार, सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित का नियुक्तिकार माना गया है। इनका जन्म वीर निर्वाण संवत् 94 में हुआ और आपने वीर निर्वाण संवत् 139 में भगवान महावीर के पाचवें पट्टधर यशोभद्र स्वामी के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण की। दिगम्बर परम्परा के अनुसार अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन के अंतिम चरण में ही दिगम्बर - श्वेताम्बर - इस प्रकार के मतभेद का सूत्रपात हो चुका था ।' उस समय मध्यप्रदेश में भयंकर अनावृष्टि के कारण दुष्काल पड़ा। आचार्य विमलसेन के शिष्य आचार्य देवसेन ने दिगम्बर परम्परा के प्रसिद्ध ग्रंथ 'भावसंग्रह' में श्वेताम्बर परम्परा की उत्पत्ति का विवरण दिया है। इसमें कहा गया, राजा विक्रम की मृत्यु के 136 वर्ष पश्चात् सोरठ देश की वल्लभी नगरी में श्वेतपट- श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई | उज्जयिनी नगरी में भद्रबाहु नामक एक आचार्य थे । वे निमित्तशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे अपने निमित्त ज्ञान के बल पर उन्होंने अपने संघ से कहा, यहाँ पर निरन्तर बारह वर्ष पर्यन्त भयंकर दुष्काल का प्रकोप रहेगा, अतः आप लोग अपने अपने संघ के साथ अन्यान्य प्रान्तों और क्षेत्रों की ओर चले जाओ । भद्रबाहु की वह भविष्यवाणी सुनकर सभी गणनायकों ने अपने अपने संघ के साथ उज्जयिनी के विभिन्न क्षेत्रों से विहार कर दिया और जिन प्रदेशों में सुभिक्ष था, वहाँ जाकर विचरण करने लगे। शांति नामक एक संघपति अपने बहुत से शिष्यों के साथ सुरम्य सोरठ प्रदेश की वल्लभ नगर में पहुँचा ।' अपने साधुसंघ के साथ आचार्य शांति के वल्लभी पहुँचने के पश्चात् वहाँ पर भी बड़ा भी बड़ा भीषण दुष्काल पड़ा। वहाँ घोर दुष्काल के कारण ऐसी वीभत्स स्थिति उत्पन्न हो गई कि भूख से पीड़ित एक लोग अन्य लोगों के पेट चीरकर उनकी आंतों और ओझरियों अन्न निकाल- निकाल कर खाने लगे । इस भयावह स्थिति से मजबूर होकर संघ के
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3. देवसेन, भावसार, गाथा संख्या 52-56
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1. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन परम्परा का इतिहास (छठा संस्करण, 1990) पृ67-68
2. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय खण्ड, पृ 326
छत्रीसे वरिससए विक्कम रायस्स मरण पत्तसा । सोरट्टे उघणो सेवड़ संघो हु वल्लहीए 1152।। आसी उज्जेणीयरे आयरियो भद्दबाहु णायेण । जाणिय सुणिमित्तधरो माणियो संघो णियो तेण ॥53॥ होह इह दुब्मिक्खं बारह बरसाणि जाव पुम्पाणि ।
संतरा गच्छह यि णिय संघेण संजुत्ता ||54|| सोऊण इयं पयणं णाणा देसेहि गणहरा सव्वे । णिय यि संघ पत्ता वितरिया जत्त सुमिक्खं ||55|| एक पुण संति णायो संपत्तो वल्लही णाम णयरीरा । बहुसीस सम्पउत्तो विसए सोरट्ठए रम्मे ||56||
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