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महावीरोत्तर युग : जैनमत का प्रसारकाल
श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से महावीरोत्तर युग को निम्नांकित चरणों में विभाजित किया जा सकता है।
(i) भद्रबाहुकाल (दूसरी शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक) (क) आगमवाचनाकाल और संघभेदकाल (श्रुतकेवलिभद्रबाहु से देवर्द्धि क्षमाश्रमण
तक)
(ख) संक्रांतिकाल और हरिभद्रकाल (हरिभद्रपूरि से लगभग 1000 ई तक) (ग) सम्प्रदायभेदकाल (1000 ई से लोंकाशाह तक)
(ii) वैचारिक क्रांति अथवा लोंकाशाह काल (लोकाशाह से आज तक) (1) भद्रबाहुकाल
श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से भद्रबाहु के पश्चात के इतिहास को भद्रबाहु काल का नाम दिया जा सकता है, क्योंकि भद्रबाहु के समय में ही संघभेद का बीज पड़ा ; भद्रबाहु के समय में ही प्रथम वाचना की भूमिका निर्मित हो गई ; भद्रबाहु के समय जिस श्वेताम्बर परम्परा का बीजारोपण हुआ; उसी का प्रवर्तन, प्रवर्द्धन और विकास आगे चलकर हुआ। इन 1500 वर्षों में पहले संघभेद हुआ और फिर सम्प्रदाय भेद।
लगभग 1500 वर्षों का इतिहास भद्रबाहु के कृतित्व से प्रभावित है, इसलिये इसका नाम भद्रबाहुकाल देना समीचीन जान पड़ता है। भद्रबाहु के समय से लेकर लोंकाशाह तक जैन मत की श्वेताम्बर परम्परा ने कितने ही उतार चढ़ाव देखे। (i) (क) आगमकाल और संघभेदकाल (श्रुतकेवलि भद्रबाहु से देवाद्धिक्षमाश्रमण तक)
श्रुतकेवलि भद्रबाहु के पश्चात् दो घटनाएं धीरे धीरे एक साथ घटित हुई - (1) आगमों की वाचना और (2) संघभेद। जैनमत के इतिहास की यह दोनों घटनाएं एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़ी हैं। भद्रबाहु के पश्चात् ही दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायों का बीजवपन हो गया। पाटलिपुत्र वाचना में इसका बीजवपन हुआ, माथुरी वाचना में इसका अंकुर फूटा और वलभी वाचना में संघभेद ने वटवृक्ष का रूप धारण कर लिया। वलभी वाचना के ठीक बाद में श्वेताम्बर पट की पताका फहराने लगी। संघभेद
भगवान महावीर का धर्मसंघ-श्वेताम्बर और दिगम्बर उन दो परम्पराओं में विभक्त हुआ, इस विषय में इन दोनों परम्पराओं की मान्यताओं में मतभेद है।
श्रुतकेवली भद्रबाहु और चंद्रगुप्त मौर्य के काल में ही जैनमत दो सम्प्रदायों दिगम्बर और श्वेताम्बर में विभाजित हुआ।
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