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सभी साधुओं ने कम्बल, दण्ड, तूंबा, पात्र और आवरण हेतु श्वेतवस्त्र धारण कर लिये ।' दुर्भिक्ष के समाप्त होने पर उसने पुन: आदेश दिया कि अब पुनः श्रेष्ठ आचरण को ग्रहण करो, किन्तु प्रथम शिष्य ने मना कर दिया। शांताचार्य के इस कथन से रुष्ट होकर उनके उस प्रधान शिष्य ने लम्बे sus से गुरु के सिर पर प्रहार किया, जिसके आघात से स्थविर आचार्य का प्राणान्त हो गया और मरकर व्यन्तरजाति के देव बने । आचार्य के मरने पर उनका वह प्रमुख शिष्य संघाधिपति बन बैठा और प्रकट में श्वेताम्बर हो गया। 2.
1. देवसेन, भावसार, श्लोक 57-58
आचार्य हरिषेण के 'वृहतकथाकोश' के अनुसार आचार्य भद्रबाहु के स्वर्गसिधारने के पश्चात् दुष्काल के समय श्रावकों ने निवेदन किया, आप लोग भिक्षापात्र लेकर भिक्षा लाने हेतु रात्रि के समय ही घरों में आया करें। रात्रि में लाया हुआ आहार दूसरे दिन खा लिया करें। कुछ समय पश्चात् उन श्रमणों में से एक अत्यंत कृषकाय श्रमण अर्द्धरात्रि के समय भिक्षापात्र लिये गृहस्थ के घर ने भिक्षार्थ प्रविष्ट हुआ। रात्रि के घनानांधकार में उस नग्न साधु के कंकालावशिष्ट गृहिणी इतनी अधिक भयभीत हुई कि तत्काल उसका गर्भ गिर गया। अब श्रावकों ने श्रमणों से प्रार्थना की कि वे अपने बांये स्कन्ध पर कपड़ा (अर्द्धफालक) भिक्षा ग्रहण करते समय रखें । भिक्षा ग्रहण करते समय बायें हाथ से कपड़े को आगे की ओर कर दें और दक्षिण हाथ से ग्रहण किये हुए पात्र में भिक्षा ग्रहण करें । सुभिक्ष होने पर तीन आचार्य रामिल, स्थूलवृद्ध और स्थूलभद्राचार्य ने अर्द्धफालक त्याग कर निर्ग्रथ मुनियों का वेश धारण कर लिया और जो साधु कष्ट सहन से कतराते थे और जिनका मनोबल दृढ़ नहीं था, उन्होंने जिनकल्य और स्थविर कल्प के विधान की कल्पना कर निर्ग्रथ परम्परा के विपरीत स्थविर कल्प परम्परा को ग्रहण किया। 3 दिगम्बर परम्परा के अपभ्रंश के कवि रयधू के “महावीर चरित्' में स्थूलभद्र के स्वर्गारोहण के पश्चात् दुष्काल में स्थूलाचार्य आदि श्रमणों द्वारा पात्रदण्ड वस्त्रादि ग्रहण करना
तत्थ वि यस्स जायं, टुब्भिवल दारुणं महाघोरं । जत्थ वियारिय उयरं खद्दो रंकेति कुरुत्ति ||57|| तं लहिऊण णिमित्त गहियं सव्वेहि कम्बलिदंड । दुद्दियपत्तं च तहा पावत्थ सेयवत्सं च ॥58॥
2. वही, श्लोक 66-69
ता संतिणा पउत्तं चरिय पमट्ठेतिं जीवियं लोए । रायं णहु सुन्दरणं दूसणयं जइण मग्गस्स ||66 || णिष्ण थं पण्णयणं जिणवरणाहेण आक्सेयं परमं । तं छडिऊण अण्णं पवत्त माणेण मिच्दतं |167॥ ता रूसिऊण पहओ सीसे सीसेण दीह दंडेण । थविरो धाराण मुओ, जाओ सौ वितरों दैवो |1681 इयरो संघाहिवइ पयडिय पाखंड सेवड़ो जाओ । अक्खड़ लोए धम्मं समांथं अत्थि णिव्वाणं ||69 ||
3. आचार्य हरिषेण, बृहतकथकोश, श्लोक 66
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त्यक्त वार्द्ध कर्पटं सद्यः संसारात्त्रस्त मानसाः । नैर्ग्रन्थ्यं हि तवः कृत्वा मुरिरूप दधु स्त्रयः ||661
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