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है कि लोहार्यका नाम सुधर्मा ही था।'
यह सम्भव है कि कहीं नन्दी और कहीं विष्णु नाम आता है । यह सम्भव है कि आचार्य का पूरा नाम विष्णु नन्दि हों, संक्षेप में उन्हें कहीं विष्णु और कहीं नन्दि कहा गया हो।
वीर निर्वाण के 170 वर्ष बीतने पर भद्रबाहु स्वामी का स्वर्गवास हुआ। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार -
श्री वीर मोक्षात् वर्ष शतै सहात्यपते गति सति।
भद्रवाद रपि स्वामी ययौ स्वर्ग समधिजा॥' भद्रबाहु ही एक ऐसे हैं, जिन्हें दोनों सम्प्रदायों ने माना है भद्रबाहु का युगप्रधानत्व दोनों सम्प्रदायों को स्वीकार्य है। इन्हीं के समय में संघभेद प्रारम्भ हुआ है। भद्रबाहु का स्थान अखण्ड जैन परम्परा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
दिगम्बर जैन ग्रंथ और शिलालेख इन्हें मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त का समकालीन सिद्ध करते हैं। विदेशी और देशी इतिहास भी इनसे सहमत हैं। किन्तु काल गणना के हिसाब से समकालीनता सिद्ध नहीं होती। दोनों के बीच 60 वर्ष का अन्तर पड़ता है। यदि भद्रबाहु के समय वीर निर्वाण 162 में 60 वर्ष बढ़ा दिये जाये तो चन्द्रगुप्तमौर्य और भद्रबाहु की समकालीनता ठीक बन जाती है।
- जम्बूस्वामी केवली के पश्चात् होने वाले युग प्रधान आचार्यों में भद्रबाहु ही एक ऐसे हैं, जिन्हें दोनों सम्प्रदायों ने माना है। जम्बू स्वामी के पश्चात् और भद्रबाहु स्वामी से पहले होने वाले 4 आचार्यों के नाम दोनों सम्प्रदायों में मिला है। इससे यह स्पष्ट है कि वे एक दूसरे से भिन्न व्यक्ति हैं, किन्तु भद्रबाहु का युगप्रधानत्व दोनों सम्प्रदायों को स्वीकार्य है। इसलिये भद्रबाहु का स्थान अखण्ड जैन परम्परा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त
दिगम्बर साहित्य के हरिषेणकृत वृहतकथाकोश' की कथा 131 के अनुसार भद्रबाहु पुण्ड्र देश के निवासी एक ब्राह्मण के पुत्र थे, जिन्हें चतुर्थश्रुत केवली गोवर्धन ने उनके पिता से मांगकर विद्वान बना दिया। भद्रबाहु गोवर्धन के पश्चात् पंचम श्रुतकेवली हुए। बाद में दिव्यज्ञान से यह जाना कि 12 वर्ष तक अकाल पड़ेगा। वे दक्षिण की ओर चले गये और चन्द्रगुप्त मौर्य ने विशाखाचार्य बनकर दीक्षा ली। यह निर्विवाद है कि वृहत् कथाकेश में जिस भद्रबाहु का आख्यान दिया है, वे श्रुतकेवली भद्रबाहु ही हैं और उनके समय में चंद्रगुप्त नाम का यदि कोई राजा हुआ तो
पंचाण मेलिदाणं काल पमाणं हवेदि वाससदं ।
बीदम्मिपंचमरा भरहे सुतकेवलि गत्थि।।14841 1. जम्बू पण्णाति, श्लोक 10
तेणवि लोहजस्सं य लोहज्जेण य सुधम्मणामेणं ।
मणहर सुधम्मणा रक्तुजंबुणामाणसय णिद्दिटुं॥10॥ 2. हेमचन्द्राचार्य, परिशिष्ट पर्व
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