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परम्परा के थे, क्योंकि वे श्वेत वस्त्र धारण करते थे।' खारवेल के पश्चात् तृतीय शताब्दी की एक स्वर्णमुद्रा प्राप्त हुई है और यह तृतीय शताब्दी के महाराजा धर्मधर की है। डा. अल्टेकर के अनुसार ये मुरन्दा परिवार के खार वेलोत्तर युग के जैन शासक थे। इसके पश्चात् कलिंग में बौद्धमत लोकप्रिय हो गया। सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने कलिंग में निग्रंथ साधुओं को देखा था। उस समय खण्डगिरि और पद्यगिरि में जैनमत लोकप्रिय था। बालासोर के एक शिलालेख के अनुसार कुमारसेन दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी का जैनमत का अध्यापक था। उड़ीसा में आठवीं से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी में जैन मत का बहत प्रचार था, इसका प्रमाण इस काल की उपलब्ध मूर्तियां हैं। इसके पश्चात् वैष्णवमत और जगन्नाथ पूजा के कारण उड़ीसा में जैनमत का ह्रास हुआ। जगन्नाथ में भी नाथ शब्द का उपयोग जैनमत के प्रभाव के कारण था। उड़ीसा जैन कलाओं की दृष्टि से समृद्ध है। जैपुर, नन्दपुर, भैरवसिंहपुर में जैन तीर्थंकारों की अनेक मूर्तियां उपलब्ध हुई है। कटक के जैन मंदिर में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां है। अब वहाँ श्रमण सभ्यता केवल एक छोटे समुदाय तक सीमित है, किन्तु आठवीं शताब्दी तक इसका वहाँ व्यापक प्रसार था।
मध्यप्रदेश में मौर्यकालीन और गुप्तकालीन जैन अवशेष नष्ट होने के कारण उपलब्ध नहीं है। विदिशा के उदयगिरी की गुफा में तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्ति उपलब्ध है, जिनके सिर के ऊपर सांप व छत्र है। खजुराहो में हिन्दू मंदिरों के अतिरिक्त तीन जैन मंदिर है। इन मंदिरों में एक घंटिया मंदिर है। घंटिया मंदिर के उत्तर पूर्व में आदिनाथ का मंदिर है और तीसरा मंदिर पार्श्वनाथ का है। चंदेला साम्राज्य के पहले का दसवीं शताब्दी का जिननाथ मंदिर है, जिसमें सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथकी 16 फीट कीमति शांति की सही प्रतिमा है। आठवीं शताब्दीक चंदेल राज्य चंद्रवर्मा के समय की सैंकड़ों जैन मूर्तियां उपलब्ध हुई है। देवगढ़ में गुर्जर परिहार राजाओं के समय का 784 ई. का एक मंदिर है। इसके शिलालेख से पता चलता है कि यह नागभट्ट द्वितीय के पौत्र और वत्सराज के प्रपौत्र भोजदेव का शिलालेख है। 1294 ई में यहाँ जैनमत का बहुत प्रचार था। एक मंदिर में शांतिनाथ की 12 फीट की मूर्ति है। पुरातत्व विभाग को यहाँ जैन सम्बन्धी 1200 शिलालेख प्राप्त हुए हैं। ग्वालियर में हिन्दू, बौद्ध और जैन- तीनों की
1. Jain Journal, Page 170
The monks appear to have belonged to the Svetambara order as
they wore pieces of clothes and robes. 2. वही, पृ 170
A gold coin of the Maharaja Rajdhiraja Dharmdhar of the 3rd century A.D. has been found form Sisupalgarh in course of the excavation and according to Dr. A.S. Altelcar, he was probably a Jain king of the Murunda family, who controled Orissa in the post Kharvala
period. 3. वही, पृ 172
Further inscription from Balsore mentions one Kumarsena who
seems to have been a Jain teacher of the 10th century A.D. 4. वही, पृ 175 5. वही, पृ 176 6. वही, पृ 177
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