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__ अर्थात जन्म के पिछले भाग में वामन ने तप किया। उस तप के प्रभाव शिव ने वामन को दर्शन दिये । वे शिव, श्यामवर्ण, नग्न दिगम्बर और पद्मासन से स्थित थे। वामन ने उनका नाम नमिनाथ रखा। यह नमिनाथ इस घोर कलिकाल में सब पापों का नाश करने वाला है। उसके दर्शन और स्पर्शन से करोड़ों यज्ञों का फल होता है।
___ जैन मान्यता नमिनाथ को कृष्णवर्ण मानती है और उनकी मूर्ति भी अन्य जैन मूर्तियों के समान दिगम्बर और पद्मासन में स्थित होती है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि पद्मासन रूप जैन मूर्ति को शिव की संज्ञा दे दी गई है।'
ब्राह्मणों को अनेक पुरानी वैदिक रीतियों को त्यागना पड़ा। जान पड़ता है नमिनाथ की मूर्ति की शिव के रूप में उपासना उसी का फल है। आज भी बद्रीनाथ में जैन मूर्ति बद्रीविशाल के रूप में पूजी जाती है। इस प्रकार बाईसवें तीर्थंकर नमिनाथ या अरिष्टनेमि जैन परम्परा के ऐतिहासिक तीर्थंकर हैं। 23. श्री पार्श्वनाथ
भगवान अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) के पश्चात तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ हुए। आप भगवान महावीर से 250 वर्ष पूर्व हुए। ऐतिहासिक युग ईसा पूर्व नौवी शताब्दी के मध्य प्रारम्भ होता है, जब काशी के राजा अश्वसेन के घर तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने जन्म लिया। कौशल और विदेह के साथ काशी को भी प्राधान्य उत्तरवैदिक काल में मिला था।
जैन मान्यता के अनुसार भगवान महावीर के जन्म से 278 वर्ष पूर्व भगवान पार्श्वनाथ का जन्म काशी में हुआ था। भगवान महावीर का जन्म ईस्वी पूर्व 599 में हुआ, अत: भगवान पार्श्वनाथ का जन्म ईस्वी पूर्व 877 में हुआ।
भगवान पार्श्व ने अपने आठवें भव में स्वर्णबाहु के रूप में तीर्थंकर पद प्राप्त करने की योग्यता अर्जित की। चैत्रकृष्ण चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में स्वर्णबाहु का जीव वाराणसी के महाराजा अश्वसेन की महारानी वामा की कुक्षि में गर्भ रूप में उत्पन्न हुआ। आचार्य मुण्डक ने 'उत्तर पुराण' और पुष्पदन्त ने 'महापुराण' में पिता का नाम विश्वसेन और माता का नाम ब्राह्मी लिखा है।
देवगुप्तसूरि के “पार्श्वनाथ चरित्र' और 'त्रिषष्टि श्लाका का पुरिस' में अश्वसेन के गोत्र को इक्ष्वाकुवंशी बतलाया है। 'तिलोयपण्णती' में आपका वंश उग्रवंश बतलाया है। पुष्पदंत ने पार्श्व के वंश को उग्रवंशीय बतलाया है। इस प्रकार दिगम्बर मान्यता के अनुसार पार्श्वनाथ उग्रवंशी थे, जबकि श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार इक्ष्वाकुवंशी। ऋषभदेव इक्ष्वाकुवंशी थे, इसलिये यह माना जा रहा है कि उग्रवंश भी इक्ष्वाकुवंश की एक शाखा ही होना चाहिये। सम्भव है कि उग्रसेन से ही काशी में उग्रवंशी राज्य की स्थापना हुई हो। 'विष्णुपुराण' और 'वायुपुराण' में काशिराज ब्रह्मदत्त के उत्तराधिकारी को योगसेन, विश्वकसेन और झल्लाट बतलाया है।
1.पं. कैलाशचंद्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास, पृ 173 2. महापुराण, 94-4-23
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