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है, वैसे ही इन्द्रिय निवारण के लिये परिग्रह का त्याग कहा गया है।'
महावीर ने अहिंसावादी जिन दर्शन की महत्ता स्थापित की। महावीर ने कहा, “ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसान करें। इतना जानना ही पर्याप्त है कि अहिंसामूलक समताही धर्म है और यही अहिंसा का विज्ञान है; सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं, इसलिये प्राणवधको भयानक जानकर निग्रंथ उसका वर्जन करते हैं। जीव का वधअपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है। अत: आत्महितैषी (आत्मकाम) पुरुषों ने सभी तरह की जीव हिंसा का परित्याग किया है'; जिसे तो हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तो आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है, जैसे जगत में मेरुपर्वत से ऊँचाऔर आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।'
महावीर के मतानुसार आत्मा के तीन रूप हैं- बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। इंद्रिय समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला बहिरात्मा है, आत्मसंकल्प-देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करने वाला अंतरामात्रा है और कर्मकलंक से विमुक्त आत्मा परमात्मा है।' महावीर के अनुसार परमात्मा के दो रूप हैं- अहँत और सिद्ध। केवल ज्ञान से समस्त पदार्थों को जानने वाले सशरीर जीव अर्हत हैं तथा सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) के संप्राप्त ज्ञान शरीर जीव सिद्ध
1. समणसुत्तं, पृ46-47
गंथगच्चाओ इंदिय णिवारणे अंकुसो वहथिस्स।
णयरस्स खाइया वि य, इंदिय गुची असंगतं ।। 2. वही, पृ46-47
एयं खु नाणियो सारं, जं न हिंसइ कैचण ।
अहिंसा समवं येव, एताइते वियाणिया ।। 3. वही, पृ46-47
सव्वे जीवा वि इच्छांति, जीविडं न मरिजिउं ।
तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंधा वज्जयेति णं ॥ 4. वही, पृ48-49
जीव वहो अप्पहो, जीव दया अप्पणो दया होइ।
ता सव्व जीवाहिंसा पस्चिता अत्ताकामेहिं ।। 5. वही, पृ4-49
तमं सि नाम स चेव, हैतत्वं ति मनसि ।
तुमं सि नाम स चेव, जं अज्जावेयव्वं ति मन्नासि ॥ 6. वही, पृ50-51
तुगंन मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि।
जह तह जयंमि जाणसु धम्ममहिंसा समनस्थि ।। 7. वही, पृ 56-57
अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरप्पा हु अप्पसंकप्पो।
कम्म कलंक विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥ 8. वही, पृ56-57
सशरीरा अरहंता, केवल णाणेण मुणिय सयलत्था। जाणशरीर सिद्धा, सव्वुत्तम सुक्ख-संपत्ता ।।
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