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57 महावीर ने सम्यग्ज्ञान, सम्यगदर्शन, सम्यग्चारित्र्य को मोक्षमार्ग कहा है। इसे रत्नमय भी कहा गया है। धर्म आदि का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यग्ज्ञान । तप से प्रयत्नशीलता सम्यगचरित्र है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।' ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है। दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र्य में कर्मास्रव करता है और तप से विशुद्ध होता है; सम्यग्दर्शन के विरुद्ध ज्ञान नहीं होता है, ज्ञान के बिना चारित्र्यगुण नहीं होता है, चारित्र्यगुण के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण (अनन्त अरन दे) नहीं होता।' आत्मा में लीन
आत्मा ही सम्यग्दृष्टि है ; जो यथार्थरूप में आत्मा को जानता है वही सम्यग्ज्ञान है और उसमें स्थित रहना ही सम्यक्चारित्र्य' है और आत्मा ही मेरा ज्ञान है, आत्मा ही दर्शन और चरित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है।
महावीर ने चारित्र्य पर अधिक बल दिया। महावीर ने कहा, चरित्र्य शून्य पुरुष का विपुल शास्त्राध्ययन भी व्यर्थ ही है, जैसे कि अंधे के आगे लाखों करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है ', चरित्र्य सम्पन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है और चरित्र्यविहीन का श्रुतज्ञान भी निष्फल
महावीर ने श्रावक और साधु को परिभाषित किया है। सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के
1. समणसुत्तं, पृ 68-69
धम्मा दीखं सद्दहणं सम्मतं णाणमंग पुव्वगंद ।
चिट्ठा तंवसि चरिया, ववहारो मोक्खभग्गो त्ति ॥ 2. वही, पृ68-69
नाणेण जाणई भवि, दंसणेण य सद्दते ।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥ 3. वही, पृ70-71
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरण गुणा।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नथि अमोक्खस्स निवाणं॥ 4. वही, पृ72-73
अप्पा अप्पमि रओ, सम्माइट्टी हवेई फुडु जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चास्तिमंगुत्ति । 5. वही, पृ72-73
आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्रे यं ।
आया पच्चक्खणि, आया में संजमे जोगे। 6. वही, पृ86-87
सुवहुं पि सुयमहीयं किं, काहिइ चरणविप्प होणस्स।
अंधस्स जह पलित्ता, दीव सयसहस्स कोडी वि ॥ 7. वही, पृ86-87
थोवम्मि सिक्खदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरितहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण ॥
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