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उत्पन्न हुआ। लगभग 70 वर्ष तक विहार करते हुए पार्श्वनाथ ने जैनमत का प्रचार-प्रसार किया और श्रावण शुक्ला अष्टमी को विशाखा नक्षत्र में चन्द्र का योग होने पर निर्वाण प्राप्त किया।
"पासनाथ चरिऊं के अनुसार भगवान पार्श्वनाथ के निम्नांकित गणधर थे1. शुभदत्त 2. आर्यघोष 3. वशिष्ठ 4. आर्य ब्रह्म 5. सोम 6. आर्यश्रीधर 7. वारिसेन 8. भद्रयश 9. जय 10. विजय
क्या श्रमण परम्परा की नींव ऋषभदेव ने डाली? हर्मन जेकोवी ने माना है कि बुद्ध के पूर्व निग्रंथ सम्प्रदाय विद्यमान था। आधुनिक इतिहासकार भगवान पार्श्व को निग्रंथ सम्प्रदाय का प्रवर्तक मानते हैं। डा. हर्मन जेकोबी के अनुसार “यह प्रमाणित करने के लिये कोई आधार नहीं है कि पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे। वास्तव में निग्रंथ धर्म का प्रवर्तन पार्श्वनाथ से भी पहले का है। जैन परम्परा ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर आदि संस्थापक मानने में एकमत है।"
भगवान पार्श्वनाथ की वाणी में करुणा, मधुरता और शांति की त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित होती थी। उनके उपदेशों का प्रभाव वैदिक ऋषि पिप्पलाद, मुण्डक सम्प्रदाय के भारद्वाज ऋषि, उत्तर वैदिक कालीन ऋषि नचिकेता और वैदिक क्रियाकाण्ड के कट्टर विरोधी अजित केश कम्बल आदि पर स्पष्ट दिखाई देता है।
पिप्पलाद के अनुसार प्राण या चेतना जब शरीर से पृथक हो जाती है, तब शरीर नष्ट हो जाता है। मुण्डक सम्प्रदाय के तापस सिर मुंडाकर भिक्षा माँगते थे। नचिकेताशीतजल में जीव मानते थे।
बुद्ध पर भी पार्श्वमत का प्रभाव पड़ा। पार्श्वनाथ के चतुर्याम का सान्निवेश बुद्ध के शील स्कन्ध में है
पार्श्वनाथ की वाणी का ऐसा प्रभाव था कि उनसे बड़े-बड़े राजा महाराजा भी प्रभावित हुए बिना न रह सके। कलिंग के शक्तिशाली राजा करकुंड, पांचाल नरेश दुर्मुख या द्विमुख, विदर्भ नरेश भीम, गान्धार नरेश नागजित या नागाति भी तीर्थंकर पार्श्व के समसामयिक नरेश थे।
पार्श्वनाथ श्रमण परम्परा के अनुयायी थे। जैन साहित्य में पाँच प्रकार के श्रमण बतलाए गये हैं- निग्रंथ, शाक्य, तापस, रौरुक और आजीवक। जैन साधुओं को निग्रंथ श्रमण कहते हैं। डा. याकोबी ने यह प्रमाणित किया था कि बुद्ध के पहले निग्रंथ सम्प्रदाय था।
महावीर के पूर्व इस निग्रंथ सम्प्रदाय का नेतृत्व भगवान पार्श्वनाथ ने किया। आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार वही निग्रंथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। पार्श्वनाथ चातुर्याम- सर्व प्रकार के प्राणघात का त्याग (अहिंसा) सब प्रकार के असत्यवचन का त्याग, सर्वप्रकार के अदत्तादान (बिकी हुई वस्तु ग्रहण) का त्याग, और सब प्रकार की परिग्रह का त्याग धर्म की स्थापना की थी।
1. Indian Antiquary, Vol IX, Page 163
But there is nothing to prove that Parsve was founder of Jainism. Jain tradition is unanimous in making Rishab, the first Tirthankara, as the founder.
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