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एक काल्पनिक वंशक्रम बना दिया है। इससे स्पष्ट है कि वे भी इनकी उत्पत्ति के विषय में किसी निश्चय पर नहीं पहुंचने पाये हैं। अलबत्ता इस मत का एक ही उपयोग हमें दिखायी देता है कि ग्यारहवीं शताब्दी से इन राजपूतों का क्षत्रियत्व स्वीकार कर लिया गया। कर्नल टाड के अनुसार व्यास ने सूर्यपुत्र वैवस्वत मनु से लेकर रामचन्द्र तक सूर्यवंश के सत्तावन राजाओं का उल्लेख किया है। .......ययाति से चन्द्रवंश प्रारम्भ होता है। ....... युधिष्ठिर, जरासंध और बहुरथ तक जो कृष्ण और कंस के समकालीन थे, ...... चन्द्रवंशी थे। गहलोत के अनुसार, 'सारांश यह है कि वर्तमान राजपूतों के राजवंश वैदिक और पौराणिक काल में राजन्य उग्र, क्षत्रिय आदि नाम से प्रसिद्ध सूर्य और चन्द्रवंशी क्षत्रियों की सन्तान है। ये न तो विदेशी ही है और न विधर्मियों के वंशज ही, जैसा कि कुछ यूरोपियन लेखकों ने अनुमान किया है। लिखित साहित्य के अतिरिक्त अनेक शिलालेख भी राजपूतों को सूर्य और चंद्रवंशी बताते हैं। इनमें प्रमुख हैं प्रथम शताब्दी का उदयगिरि का शिलालेख, तेजपाल मंदिर में 1230ई. का शिलालेख जिसके अनुसार घूम्रवाल, परमार राजा सूर्यवंशी थे; सीकर जिले में हर्षनाथ के मंदिर से प्राप्त शिलालेख के अनुसार चौहानों के पूर्वज सूर्यवंशी थे; अजमेर में ओझाजी को प्राप्त शिलालेख में सूर्यवंश की भारत में प्रस्तुति का वर्णन किया गया है; चित्तौड़ की जयदेवी के मंदिर से प्राप्त 14वीं शताब्दी का शिलालेख जिसमें सूर्यवंश का वर्णन है; चिड़ावा में प्राप्त 15वीं शताब्दी का शिलालेख वंशावली देता है और जालौर और नाडौल में प्राप्त 13वीं शताब्दी के शिलालेख जिसमें राठौरों को सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार, “अग्निकुण्ड का सिद्धान्त चारण व भाटों की मानसिक कल्पना थी, जिसका एक मात्र आधार अपने संरक्षकों के लिये उच्चकुल की तलाश करना था। राजपूत सूर्य और चन्द्रवंशी थे।" ब्राह्मणों से उत्पत्ति
डा. भण्डारकर प्रथम विद्वान थे, जिन्होंने चौहानों की उत्पत्ति किसी विदेशी (खज्जर) ब्राह्मण से बताई है। फिर तो कई विद्वानों और लेखकों ने राजपूतों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से बता दी। मण्डोर के प्रतिहार ब्राह्मण के वंश के थे। इसी प्रकार आबू के प्रतिहार वशिष्ट ऋषि की सन्तान थे। आधुनिक इतिहासकार डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने इस बात को स्वीकार किया है कि मेवाड़ के नागर जाति के ब्राह्मण गुहेदत्त के वंशज हैं। श्री ओझाजी ने भी इस सिद्धान्त को माना है। मेवाड़ के महाराजा कुम्भा ने जयदेव के 'गीत गोविन्द' पर टीका लिखते समय स्वयं स्वीकार किया है गुहिलोत की उत्पत्ति गुहेदत्त से हुई है, किन्तु अधिकांश राजपूत इसे स्वीकार नहीं करते।
डॉ. भण्डारकर ने जहाँ गुर्जर मत को विदेशी आधार पर स्थित किया है, वहाँ यह भी प्रतिपादन किया है कि राजपूत वंश धार्मिक वंश से भी सम्बन्धित थे, जो विदेशी थे। इस मत की
1. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, राजपूताने का इतिहास, पृ. 41-78 2. वही पृ. 31 3. कर्नल टाड, राजपूताने का इतिहास, पृ. 42 4. जगदीशसिंह गहलोत, राजपूताने का इतिहास, पृ. 3 5.बी.एम. दिवाकर, राजस्थान का इतिहास, पृ.9
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