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ऋषभ कहते हैं । पुत्रो ! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पद पद पर मेरी उपासना करो। ""
भगवान् ऋषभ को युगों युगों से लोकनीति, राजनीति, धर्मनीति- इन तीन नीतियों का आदिकर्ता, कर्मवीरों और धर्मवीरों का आदि प्रवर्तक, सकल सुरासुरों का वन्दनीय और प्रथम जिन माना गया है । 2
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सार्वभौम लोकनायक और सार्वभौम धर्मनायक के रूप में ऋषभदेव की कीर्ति जगत अक्षुण्ण रही है, इसलिये प्राचीन धर्मग्रंथों में ऋषभदेव को धाता, भाग्यविधाता और भगवान आदि लोकोत्तर नामों से अलंकृत किया गया है ।
भगवान ऋषभ के समय में मानव समाज किसी कुल, जाति और वंश के विभाग में विभक्त नहीं था । जब समाज में विषमता बढ़ी तब आदिनाथ ऋषभ ने वर्णव्यवस्था का सूत्रपात किया । इन्होंने सुदृढ़ और शक्तिसम्पन्न लोगों को क्षत्रिय की संज्ञा दी, कृषि और वाणिज्य में निपुण लोगों को वैश्य और जनसमुदाय की सेवा करने वालों को शूद्र की संज्ञा दी। इस प्रकार ऋषभदेव के समय में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की उत्पत्ति हुई । '
इस प्रकार प्रागैतिहासिक युग के उत्खनन और वैदिक और वैदेत्तर साहित्य में ऋषभदेव के अस्तित्व और स्वरूप को देखा जा सकता है। जैनमत के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से ही जिन शासन और श्रमण संस्कृति की स्रोतास्विनी प्रवाहित हुई। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के काल को जैनमत का प्रवर्तन काल कह सकते हैं।
ऐसा लगता है कि जैनमत के आदि प्रवर्तक और संस्थापक ऋषभदेव ने वर्णव्यवस्था का सूत्रपात कर परोक्ष रूप में ओसवंश का बीजारोपण कर दिया।
श्रमण परम्परा
भारत के धार्मिक इतिहास में दो भिन्न परम्पराओं के दर्शन होते हैं- उनमें से एक ब्राह्मण की है, दूसरी श्रमण की । भारतवर्ष का क्रमबद्ध इतिहास बुद्ध और महावीर के काल से प्रारम्भ होता है। उस काल से लेकर इन दोनों परम्पराओं का पृथक्त्व बराबर लक्षित होता है ।" सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखकों ने साधुओं की दो श्रेणियाँ बताई हैं- श्रमण, ब्राह्मण और पतंजलि ने अपने महाभाष्य में श्रमण और ब्राह्मण में शाश्वत विरोध बतलाया है। " श्वेताम्बर जैन आगमों में पाँच प्रकार के श्रमण बताए गये हैं- निर्ग्रथ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक । वाल्मीकि रामायण में ब्राह्मण, श्रमण और तापसों का पृथक पृथक उल्लेख किया गया है।
1. श्री मद्भागवत पुराण 5-4-14
2. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम खण्ड पृ 141
3. वही, पृ. 23
4. महापुराण 16-243, 246
5. महाभाष्य- 2-4-12
6. वही, 18, पृ 28
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