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भगवान ऋषभदेव मानव समाज के आदि व्यवस्थापक और प्रथम धर्मनायक रहे हैं।' कल्पसूत्र में भगवान ऋषभदेव के पाँच नामों का उल्लेख है- 1. ऋषभ, 2. प्रथम राजा 3. प्रथम भिक्षाचर, 4. प्रथम जिन 5. प्रथम तीर्थंकर ।' महापुराण के अनुसार भगवान ऋषभदेव जिस समय माता के गर्भ में आए, उस समय कुबेर ने हिरण्य की वर्षा की, इस कारण इनका नाम हिरण्यगर्भा भी रखा गया। उत्तरकालीन आचार्यों और जैन इतिहासकारों ने भगवान ऋषभदेव को कर्मभूमि और धर्मभूमि के आद्यप्रवर्तक होने के कारण आदिनाथ के नाम से उल्लेख किया है। शताब्दियों से भगवान ऋषभदेव आदिनाथ के नाम से विख्यात है। ऋषभदेव ने सशक्त राष्ट्र का निर्माण किया, राज्य की सुव्यवस्था के लिये आरक्षक दल का निर्माण किया और राष्ट्र को 52 जनपदों में विभक्त किया, चार प्रकार की सेना और चार सेनापतियों की नियुक्ति की दण्ड व्यवस्था प्रचलित की, दण्डनायक और पदाधिकारियों की नियुक्ति की, प्रजा को स्वावलम्बी बनाया और इस प्रकार महाराज ऋषभ ने एक सुन्दर, सशक्त और सुसमृद्ध राष्ट्र के निर्माण की पूरी तैयारी की। लोकनायक और राष्ट्र स्थविर के रूप में महाराज ऋषभदेव ने विविध व्यवहारोपयोगी विधियों से तत्कालीन जनसमाज को परिचित कराया। ऋषभदेव कर्मभूमि में आगमन के समय कर्मभूमि के कार्यकलापों से नितान्त अनभिज्ञ उन भोगभूमि के भोले लोगों को कर्मभूमि के समय में सुखपूर्वक जीवनयापन की कला सिखाकर मानवता को भटकने से बचा लिया।
भगवान ऋषभदेव का गृहस्थ परिवार विशाल था, उसी प्रकार उनका धर्म परिवार भी विशाल था।यों देखा जाय तो प्रभु ऋषभदेव की वीतरागवाणी को सुनकर कोई बिरला ही ऐसा रहा होगा, जो लाभान्वित एवं श्रद्धाशील न हुआ हो। अगणित नर-नारी, देव-देवी और पशु तक उनके उपासक बने।
'जम्बूद्वीप प्रज्ञति सूत्र के अनुसार चौरासी गणधर, बीस हजार केवली साधु, चालीस हजार केवली साध्वियाँ, चौरासी हजार साधु, तीन लाख साध्वियाँ, तीन लाख पचास हजार श्रावक और पांच लाख चौपन हजार श्राविकाएं थीं। भगवान ऋषभ ने विशाल समुदाय को श्रमण संस्कृति में संस्कारित किया।
'श्री मद्भागवत' के अनुसार भगवान ऋषभदेव साक्षात् ईश्वर ही थे। अज्ञानियों को उन्होंने सत्यधर्म की शिक्षा दी।' भगवान् ऋषभ ने पुत्रों को शिक्षा देते समय कहा, "मेरे इस अवतार स्वरूप का रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध तत्व ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है। मैंने अधर्म को बहुत दूर ढकेल दिया है, इसलिये सत्युरुष मुझे
1.जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम खण्ड,114 2. कल्पसूत्र, 194 3. महापुराण, पर्व 12 और 15 4. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथमखण्ड, पृ. 38 5. वही, पृ. 127 6. वही, पृ. 128 7. श्रीमद्भागवत पुराण, 5-4-14
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