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पहेली व्रात्य भी रहा है। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में व्रात्य शब्द आया है।' नरमेध में जिन मनुष्यों का बलिदान किया जाता था, उसमें व्रात्य भी थे। दूसरी ओर अथर्ववेद में व्रात्यों को विद्वानों में उत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील और विश्वपूज्य माना है। व्रात्यों को मगध का वासी बताया गया है। मनुस्मृति में लिच्छिवियों को व्रात्य बतलाया गया है। ‘महापरिनिव्वाण सुत्त' से पता चलता है कि अर्हतों और चैत्यों के अनुयायी व्रात्य कहलाते थे।
डॉ. हावर ने व्रात्यों को रुद्र का अनुयायी बताया है। पाल कारपेण्टर (Paul Carpenter) ने व्रात्यों को आधुनिक शैवों का पूर्वज तथा अथर्ववेद के उक्त व्रात्य को रुद्र शिव बतलाया है, किन्तु कीथ ने लिखा कि अथर्ववेद के काण्ड 15 से इस बात का समर्थन नहीं होता कि व्रात्य रुद्र शिव है।'.
जायसवाल ने व्रात्यों को अब्राह्मण क्षत्रिय माना है, जहाँ महावीर का जन्म हुआ। बेवर ने व्रात्यों को बौद्ध धर्म से सम्बद्ध माना, किन्तु वैदिक साहित्य और बौद्ध धर्म के बीच में सुदीर्घ अन्तराल है। बौद्ध धर्म जैसा अब्राह्मण धर्म जैन धर्म ही हो सकता है।
व्रात्य का सम्बन्ध व्रत से है। जैन धर्म में व्रतों कानो महत्व है, वह आज किसी भी ब्राह्मणेत्तर धर्म में नहीं है।
अत: व्रात्य भ्रमणशील जैन साधु थे, जो उत्तरकाल में वज्जि या परिव्राजक कहे गये । वस्तुत: व्रात्य परम्परा श्रमण परम्परा का ही अपर नाम है।
वैदिकवाङ्गमय में व्रात्य का उल्लेख है। व्रात्य के सम्बन्ध में हिरण्यगर्भशब्द उल्लेखनीय है। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में व्रात्य शब्द आया है। यजुर्वेद और तैतिरीय ब्राह्मण में व्रात्य का अर्थ नरमेध की बलि सूची में आया है। महाभारत में व्रात्यों को महापापियों में गिनाया गया है।' अथर्ववेद में कहा गया है
। व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापति समेश्यत् ।'
व्रात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को शिक्षा और प्रेरणा दी। व्रात्य को विद्वानों में उत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील और विश्वपूज्य माना गया । इस प्रकार, 'व्रात्य शब्द व्रत से व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है व्रतपुण्य कार्य में दीक्षित मनुष्य या मनुष्यों का समुदाय । व्रात्यों को रुद्र अनुयायी बताया उचित नहीं है । व्रात्यों को आधुनिक शैवों का पूर्वज तथा अथर्ववेद के उक्त व्रात्य को रुद्र शिव बतलाया था ।'
1. ऋग्वेद 1-163-8 2. जयचन्द्र विद्यालंकार, भारतीय इतिहास की रूपरेखा, 4349 3.ऋग्वेद 1-163-8,9-14-2 4. महाभारत 5-35-46 5.अथर्ववेद, काण्ड 15 6.जैन साहित्य का इतिहास, पृ31 7. Orientai Jouiral, Geneva, 15, Page 355-368
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