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*ॐ नमः सिद्धेल्या . निया -प्रवचन
हिन्दी भाषा भाष्योपेत
॥ प्रथम अध्याय ॥ षट् द्रव्य निरूपण
श्री भगवानुवाचझूल:-नो इंदियग्गेझ अमुत्तभावा,अमुत्तभावाविप्र होइनिचो।
अज्झत्थहेनिययस्स बंधो, संसार हेउं चचयंति बंधं ॥१॥ छाया:- नो इन्दियग्राह्योऽमूर्तभावात, अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः ।
अध्यात्मतुनियतस्य बन्धः, संसार हेतुं च वदन्ति बन्धम् ॥ १॥
शब्दार्थः-आत्मा इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि वह अमूर्त है। अमूर्त होने से वह नित्य भी है । मिथ्यास्वं, अविरति, कषाय आदि कारणों से आत्मा बन्धन में फँसा है और वह बन्धन ही संसार का कारण है।
भाप्यः-निर्गन्ध प्रवचन की यह पहली माथा है। राग-द्वेष आदि श्राभ्यन्तर अन्य परिग्रह ) और राजपाट, महल-मकान, धन-धान्य आदि बाह्य ग्रन्थ का सर्वथा परित्याग करके जो महानुभाव वीतराग पदवी प्राप्त कर चुके हैं वे निर्गन्ध कहलाते हैं। चे निर्गन्ध, जगत् के जीवों को नाना प्रकार के दुःखों के समुद्र में गोते खाते हुए देख कर उनका उद्ध.र करने में समर्थ, स्यावाद की सुन्द्रा ले अंकित, वाणी द्वारा जो उपदेश देते हैं वह प्रवचन कहलाता है। इस प्रकार बीतगप भगवान् के प्रवचन को निर्ग्रन्थ-प्रवचन कहते हैं। यद्यपि प्रवचन शब्द ले चासंग आदि द्वादश अंग-लसूह का ग्रहण होता है तथापि प्रस्तुत निनन्थ-प्रवचन' द्वादशांगी से भिन्न नहीं है-यह उसी का सार-संग्रह है अतएव इसे भी 'निम्रन्थ-प्रवचन' यह सार्थक संज्ञा दी गई है।
शास्त्र पठन, धर्म किया का अनुष्ठान आदि समस्त व्यापार एक मात्र आत्मकल्याण के उद्देश्य से किये जाते हैं और आत्मा का वास्तविक कल्याण तभी हो सकता है जब प्रात्मा का सच्चा स्वरूप जान लिया जाय । यही कारण हकि चरम तीर्थकर भगवान महावीर ने अपने प्रवचन की प्रादि से अर्थात् प्रथम अंग श्राचारांग सूत्र के भारंभ में, ही आत्मा सम्बन्धी उद्गार प्रकट किय हैं और इसी हेतु ले यहां भी आरंभ में प्रात्मा के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया हैं।