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क्षेत्र ये जम्बूद्वीप के आठ विभाग हैं। ) आठ लीख के मान से एक जूं है और आठ जूं प्रमाण से जौ का मध्य भाग होता है। इस तरह आठ माप प्रमाण एक उत्सेध अंगुल होता है। (२१ से ३१)
चत्त्वार्युत्सेधांगुलानां शता न्यायामतोमतम् । तत्सार्द्धद्वयंगुलव्यासं प्रमाणांगुलमिष्यते ॥३१॥ प्रमाणं भरतश्चक्री युगादौ वादिमो जिनः । तदंगुलमिदं यत्तत् प्रमाणंगुलमुच्यते ॥३२॥ यदुत्सेधांगुलैः पञ्चधनुः शत समुच्छ्रितः । आत्मंगुलेन चाद्योऽर्हन् विशांगुल शतोन्मितः ॥३३॥. ततः षणवतिनेषु धनुः शतेषु पञ्चसु । . . . शतेन विंशत्याढयेन भक्तेष्वाप्ता चतुः शती ॥३४॥ यच्च क्वाप्युक्त मौत्सेधात्सहस्र गुणमेव तत् । तदेकांगुल विष्कम्भदीर्घ श्रेणि विवक्षया ॥३५॥ भच्चतुः शत दीर्घायाः सार्द्धद्वयंगुल विस्तृतेः । स्यादेकांगुल विस्तारा सहस्रांगुल दीर्घता ॥३६॥
२-प्रमाण अंगुल - एक उत्सेध' अंगुल से चार सौ गुणा लम्बा और अढाई गुना मोटा (चौड़ा) एक प्रमाण अंगुल होता है।.युगादि प्रभु श्री ऋषभदेव अथवा भरत चक्रवर्ती दोनों प्रमाणभूत हैं और उनका अंगुल प्रमाण अंगुल कहलाता है। युगादि जिनेश्वर'उत्सेध' अगुंल के माप से पांच सौ धनुष्य ऊँचे थे और आत्मांगुल के माप से एक सौ बीस अंगुल ऊंचे थे । इससे पांच सौ धनुष्य कों छियासी के द्वारा गुणा करने से अड़तालीस हजार अंगुल होता है और उसे एक सौ बीस से भाग करने पर चार सौ होता है। किसी स्थान पर इस तरह कहा है कि 'उत्सेध' अंगुल से एक हजार गुना होता है वह 'आत्मांगुल' लम्बी है । यह एक अंगुल की चौड़ाई वाली दीर्घ श्रेणि की विवक्षा से कहा है क्योंकि चार सौ अंगुल लम्बी और अढाई अंगुल चौड़ी श्रेणि होती है । उसकी एक अंगुल चौड़ाई वाली लम्बाई एक हजार अगुंल होता है। (३१ से ३६ तक)
दृष्टान्तश्चात्र - चतुरंगुल दीर्घायाः सर्द्धद्वयंगुल विस्तृतेः । पटया यथांगुल व्यासश्चीरो दैर्ध्य दशांगुलः ॥३७॥