Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे घादिसणा-हाणसण्णापरूपणा २१ अजहण्णसंकमो सादियसंकमो अणादियसकमो धुवसंकमो अद्ध वसंकमो एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं सणियासो णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागो परिमाण खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भाषो अप्पाबहुअं वेदि । एदेसि च जुगवं वोत्तुमसत्तीदो कमावलंबणेण सण्णाणिओगद्दारमेव ताव विहासिदुकामो सुत्तमुत्तरं भणइ
* तत्थ पुवं गमणिज्जो घादिसण्णा च हाणसण्णा च।
६६४. 'तत्थ' तेसु चउवीसमणिओगद्दारेसु 'पुलं' पढमदरमेव ताव 'गमणिज्जा' अणुगंतवा घादिसण्णा च ठाणसण्णा च । एदेण सण्णाए दुविहत्तं पदुप्पाइदं । तत्थ घादिसण्णा णाम मिच्छत्तादिकम्माणमुक्कस्सादिअणुभागसंकमफइएमु देस-सव्वघादित्तपरिक्खा । ठाणसण्णा च तेसिमेवाणुभागसंकमफयाणं जहासंभवमेगट्ठाणिय-विट्ठाणिय-तिहाणिय-चउट्ठाणियभावगवेसणा । संपहि दोण्हमेदासिं सण्णाणं णिसं कुणमाणो सुंतकलावमुत्तरं भणइ___* सम्मत्त-चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं मोत्तूण सेसाणं कम्माणमणुभागसंकमो णियमा सव्वघादी वेडाणिो वा तिहाणिो वा चउट्ठाणिोवा ।
६६५. सम्मत्त-चदुसंजलण-पुरिसवेदाणमणुभागसंकमं मोत्तण सेसकम्माणं मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-बारसक०-अट्ठणोकसायाणभणुभागसंकमो उक्कस्सो अणु० जहण्णो अजहण्णो च सव्वघादी चेत्र, देसघादिसरूवेण सबकालमेदेसिमणुभागसंकमपवुत्तीए असंभवादो। सो वुण विट्ठाणिओ तिहाणिओ चउट्ठाणिओ वा । एयवाणियो णत्थि, सव्वधादित्तणेण तस्स संक्रम, अनादि संक्रम, ध्रुवसंक्रम, अध्रुसंक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर सग्निकर्ष, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । किन्तु इनका एक साथ कथन करना असम्भव है, इसलिए क्रमका अवलम्बन लेकर संज्ञा अनुयोगद्वारको ही सर्व प्रथम कहनेकी इच्छासे आगेका सूत्र कहते हैं
* उनमें सर्व प्रथम घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा जानने योग्य है।
६६४. 'तत्थ' उन चौबीस अनुयोगद्वारों में 'पुव्वं' अर्थात् सर्व प्रथम घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा 'गमणिज्जा' अर्थात् जानने योग्य है । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा संज्ञा दो प्रकारकी कही गई है। उनसे मिथ्यात्व आदि कर्मोंके उत्कृष्ट आदि अनुभागसंक्रमरूप स्पर्धों से कौन स्पर्धक देशघाति हैं और कौन स्पर्धक सर्वघाति हैं इस प्रकारकी परीक्षा करना घातिसंज्ञा कहलाती है। तथा उन्हों अनुभागसंक्रमरूप स्पर्धकोंके एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिकभावकी गवेषणा करना स्थानसंज्ञा कहलाती है। अब इन दोनों संज्ञाओंका निर्देश करते हुए आगेका सूत्र
कलाप कहते हैं
___* सम्मक्त्व, चार संल्वलन और पुरुषवेदको छोड़ कर शेष कर्मों का अनुभागसंक्रम नियमसे सर्वघाति तथा द्विस्थानक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है।
६६५. सम्यक्ल्व, संज्वलन चार और पुरुषवेदके अनुभागसंक्रमको छोड़ कर मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषाय इन शेष कर्मों का उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाति ही होता है, क्योंकि इनके अनुभागसंक्रमकी सर्वदा देशघातिरूपसे प्रवृत्ति होना असम्भव है । परन्तु वह अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक या चतुःस्थानिक होता