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आठ कर्म की प्रकृति
१२३ ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तरमुहूर्त की उत्कृष्ट तीस करोडाकरोडी सागरोपम की, अवाधा काल तीन हजार वर्ष का।
दर्शनावरणीय कर्म का विस्तार
दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृति नव १ निद्रा ·-सुख से ऊँघे और सुख से जागे । २ निद्रा निद्रा —दु.ख से ऊँघे और दु.ख से जागे । ३ प्रचला -बैठे २ ऊँचे। ४ प्रचला प्रचला -बोलते बोलते व खाते खाते ऊंचे।
५ थीणाद्धि (स्त्यानद्धि) निद्रा-ऊँघ के अन्दर अर्ध वासुदेव का बल आवे । जब ऊँघ के अन्दर ही उठ बैठे, उठ कर द्वार ( किवाड ) खोले, खोल कर अन्दर से आभूषणों का डिब्बा और वस्त्रो की गठडी लेकर नदी पर जावे । वह डिब्बा हजार मन की शिला उठा कर सके नीचे रखे व कपडो को धोकर घर पर आवे, सुबह सोकर उठे परन्तु मालूम होवे नही कि रात को मैंने क्या-क्या किया । डिब्बे को ढूढे परन्तु घर मे मिले नही । ऐसी निद्रा छ महिने बाद फिर आवे उस समय डिब्बा जहाँ रक्खा होवे वहाँ से लाकर घर में रखे पश्चात् काम करे। ऐसी निद्रा लेने वाला जीव मर कर नरक में जावे । इसे स्त्यानद्धि निद्रा कहते है।
६ चक्ष दर्शनावरणीय ७ अचक्ष दर्शनावरणीय ८ अवधिदर्शनावरणीय केवलदर्शनावरणीय ।
दर्शनावरणीय कर्म छ प्रकारे बांधे १ दंसणपडिणियाए 'सम्यक्त्वी का अवर्णवाद बोले तो दर्शनावरणीय कर्म बांधे।