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जैनागम स्तोक संग्रह उपाजित कर्मो को शुभ योग से खपावे व शुभ योग के द्वारा नये कर्म न बांधे । पाँच इन्द्रिय के स्वाद रूप आश्रव से उपार्जित कर्म तप रूप संवर द्वारा खपावे और तप रूप सवर से नये कर्म न वांधे । अतः अज्ञानादिक आश्रव मार्ग का त्याग करके ज्ञानादिक सवर मार्ग आराधन करे एवं तीर्थङ्करों का उपदेश सुनने की रुचि उपजे । इसे उपदेश रुचि ( उवएस रुचि ) तथा उगाढ रुचि भी कहते हैं।
धर्मध्यान के चार अवलम्बन १ वायरणा, २ पुच्छणा, ३ परियट्टणा, ४ धर्मकथा
१ वायणा-विनय सहित ज्ञान तथा निर्जरा के निमित्त सूत्र के व अर्थ के ज्ञाता गुर्वादिक के समीप सूत्र तथा अर्थ की वाचना लेवे उसे वायणा कहते है।
२ पुच्छणा - अपूर्व ज्ञान प्राप्त करने लिये तथा जैन मत दीपाने के लिये, सन्देह दूर करने के लिये अथवा अन्य की परीक्षा के लिये यथायोग्य विनय सहित गुर्वादिक से प्रश्न पूछे उसे पुच्छणा कहते है। ____३ परियट्टणा- पूर्व पठित जिनभाषित सूत्र व अर्थों को अस्खलित करने के लिये तथा निर्जरा निमित्त शुद्ध उपयोग सहित शुद्ध अर्थ और सूत्र की बारम्बार स्वाध्याय करे उसे परियट्टणा कहते है । ___४ धर्मकथा-जैसे भाव वीतराग ने परूपे है, वैसे ही भाव स्वयं अंगीकार करके विशेष निश्चय पूर्वक शड्डा, कला, वितिगच्छा रहित अपनी निर्जरा के लिए और पर-उपकार निमित्त सभी के अन्दर वे भाव वैसे ही परूपे, उसे धर्म कथा कहते है ।
इस प्रकार की धर्म कथा कहने वाले तथा सुन कर श्रद्धा रखने वाले दोनो जीव वीतराग की आज्ञा के आराधक होते है। इस धर्मकथा संवर रूप वृक्ष की सेवा करने से मन वॉछित सुख रूप फल की प्राप्ति होती है।