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जैनागम स्तोक संग्रह ४ कल्प द्वार :-कल्प पाँच प्रकार का (स्थित, अस्थित, स्थविर, जिन कल्प और कल्पातीत) पालन होता है । इसके १० भेद (प्रकार) है :-१ अचेल, २ उद्देशी, ३ राज पिड, ४ सेज्जान्तर, ५ मासकल्प, ६ चोमासी कल्प, ७ व्रत, ', प्रतिक्रमण, ६ कीर्ति धर्म और १० पुरुषा ज्येष्ठ।
१० कल्पो मे से प्रथम का और अन्त का तीर्थङ्कर के शासन में स्थित कल्प होते है, शेष २२ तीर्थकर के शासन मे अस्थित कल्प है। उक्त १० कल्पो में से ४, ७, ६, १० और ४ स्थित कल्प है व १, २, ३, ५, ६, ८ अस्थित कल्प है।
स्थविर कल्प-शास्त्रोक्त वस्त्र पात्रादि रक्खे । जिन कल्प-ज० २, उ० १२ उपकरण रक्खे ।
कल्पातीत-केवली, मन : पर्यय, अवधि ज्ञानी, १४ पूर्व धारी, १० पूर्वधारो, श्रु त केवली और जातिस्मरण ज्ञानी।
पलाक-स्थित, अस्थित और स्थविर कल्पी होवे।
वकूश और पडिसेवणा नियठा मे कल्प ४-स्थित, अस्थित, स्थविर और जिन कल्पो। ____ कषाय कुशील मे ५ कल्प-ऊपर के ४ व कल्पातोत निग्रन्थ और स्नातक-स्थित, अस्थित और कल्पातोत में होवे । ____५ चारित्र द्वार :-चारित्र ५ है :-१ सामायिक, २ छेदोपस्थापनीय, ३ परिहार विशुद्ध, ४ सूक्ष्म सम्पराय, ५ यथाख्यात । पुलाक, वकुश, पडिसेवणा मे प्रथम दो चारित्र । कषाय-कुशील मे ४ चारित्र और निर्ग्रन्थ, स्नातक मे यथाख्यातचारित्र होवे ।
६ पडिसेवणा द्वार :-मूलगुणपडिसेवणा ( महाव्रत में दोप) और उत्तर गुणपडिसेवणा (गोचरी आदि मे दोष ) पुलाक, वकुश, पडिसेवणा मे मूल गुण, उत्तर गुण दोनो को पडिसेवणा, शेष तीन नियंठा अपडिसेवी । (व्रतो में दोष न लगावे)।