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धर्म-ध्यान
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संवर रूपी वृक्ष का वर्णन जिस वृक्ष का समकित रूप मूल है, धैर्य रूप कन्द है, विनय रूप वेदिका है, तीर्थङ्कर तथा चार तीर्थ के गुण कीर्तन रूप स्कन्ध है, पॉच महाव्रत रूप बडी शाखा है, पच्चीस भावना रूप त्वचा है, शुभ ध्यान व शुभ योग रूप प्रधान पल्लव पत्र है, गुण रूप फूल है, शील रूप सुगन्ध है, आनंद रूप रस है और मोक्ष रूप प्रधान फल है । मेरु गिरि के शिखर पर जैसे चूलिका विराजमान है वैस ही समकिती के हृदय में संवर रूपी वृक्ष विराजमान होता है । इसी संवर रूपी वृक्ष की शीतल छाया जिसे प्राप्त होती है, उस जीव के भवोभव के पाप टल जाते है और वह अतुल सुख प्राप्त करता है।
उक्त चार प्रकार की कथा विस्तार पूर्वक कहे उसे धर्म कथा कहते है। आक्षेवणी, विक्षेवणी, सवेगणी और निव्वेगणी आदि ४ कथाओ का विस्तार चौथे ठाणे दूसरे उद्देशे के अन्दर है ।
धर्म ध्यान की चार अणुप्पेहा जीव द्रव्य तथा अजीव द्रव्य का स्वभाव स्वरूप जानने के लिये सूत्र का अर्थ विस्तार पूर्वक चितवे उसे अणुप्पेहा कहते है।
१ एकच्चाणुप्पेहा -मेरी आत्मा निश्चय नय से असख्यात प्रदेशी अरूपी सदा सउपयोगी और चैतन्य रूप है । सर्व आत्मा निश्चय नय से ऐसी ही है और व्यवहार नय से आत्मा अनादि काल से अचैतन्य जड वर्णादि २० रूप सहित पुद्गल के सयोग से त्रस व स्थावर रूप लेकर अनेक नृत्यकार नट के समान अनेक रूप वाली है । वह त्रस का त्रस रूप मे प्रवर्ते तो जघन्य अतर्मुहूर्त उत्कृष्ट दो हजार सागर जाजेरा तक रहे और स्थावर का स्थावर रूप मे प्रवर्ते तो ज० अन्त० उत्कृष्ट (काल से) अनती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी व क्षेत्र से अनता लोक प्रमाणे अलोक के आकाश प्रदेश होवे इतने काल चक्र उत्सर्पिणी अवसर्पिणी समझना। इसके असंख्यात पुद्गल परार्वतन
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