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जैनागम स्तोक सग्रह होते है । आंगुल के असंख्यातवे भाग में जितने आकाश प्रदेश आवे उतने अ० पुद्गल परा० होते है। स्थावर के अंदर पुद्गल लेकर खेला । यह व्यवहार नय से जानना । त्रस स्थावर मे रहकर स्त्रीपुरुष नपुसक वेद में पुद्गल सयोग में खेला, प्रवर्त हुआ और अनेक रूप धारण किये । जैसे किसी समय देवी रूप मे भवनपत्यादिक से ईशान देवलोक तक इन्द्र की ईन्द्राणी सुरुपवन्ती अप्सरा हुई जघन्य १० हजार वर्ष उत्कृष्ट ५५ पल्योपम देवांगना के रूप मे अनतो वार जीव खेला। देवता रूप में भवनपत्यादिक से भाव नव ग्रेवेयक तक महधिक महा शक्तिवंत इन्द्रादिक लोक पाल प्रमुख रूपवान देदीप्यवान् वांछित भोग सयोग में प्रवृत्त हुआ। जघन्य १० हजार वर्ष, उत्कृष्ट ३१ सागरोपम एवं अनंती बार भोगा।
इन्द्र महाराज के रूप मे एक भव के अन्दर ७ पल्योपम की देवी, बावीस क्रोडाकोड, पिच्चाशी लाख कोड़, एकोत्तर हजार क्रोड, चार से अठावीस क्रोड, सत्तावन लाख चौदह हजार दो सो अठ्यासी ऊपर पाँच पल्य की ८, इतनी देवियो के साथ भोग करने पर भी तृप्ति न हुई। मनुष्य के अदर स्त्री-पुरुष रूप में हुआ। देव कुरु उत्तर कुरु के अदंर युगल युगलानी हुआ, जहां महामनोहर रूप मनवांछित ख भोगे । दस प्रकार के कल्प वृक्षो से सुख भोगे । स्त्री-पुरुष का क्षण मात्र के लिए भी वियोग नही पड़ा । ३ पल्योपम तक निरतर सुख भोगे । हरिवास रम्यक वास में २ पल्योपम हेमवय हिरण्य वय क्षेत्र के अन्दर १ पल्य तक, छप्पन अन्तरद्वीपा के अन्दर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, युगल युगलानी रूप मे अनन्ती बार स्त्री-पुरुप के रूप में खेला, परन्तु आत्म-तृप्ति नही हुई। चक्रवर्ती के घर स्त्री रत्न के रूप में लक्ष्मी समान रूप अनन्ती बार यह जीव पाकर खेला, परन्तु तृप्त नही हुआ। वासुदेव मण्डलीक राजा व प्रधान व्यवहारिया के घर स्त्री रूप में मनोज्ञ सुखो मे पूर्व क्रोडादिक के आयुष्यपने प्रवर्त हुआ । यही जीव मनुष्य के अन्दर कुरूपवान, दुर्भागी नीच कुल,