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गतागति द्वार
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सिद्ध में एक समय में जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट एक सौ आठ उपजे, ऐसे ही उद्वर्तन ( चवन) सिद्ध को छोड़कर शेष सर्व का जानना ( उत्पन्न होने के समान ।
पाँचवा कत्तो ( कहा से आवे ) छठ्ठा उद्वर्तन (चव कर कहाँ जावे ) ये दोनो द्वार ।
५६३ मे से जिस-जिस बोल के आकर उत्पन्न होवे वह आगति और चव कर ५६३ मे से जिस-जिस बोल है जावे वह गति ( उद्वर्तन ) |
(१) पहली नरक मे २५ बोल की आगति - १५ कर्मभूमि, ५ संज्ञी तिर्यच, ५ असज्ञी तिर्यच पचेन्द्रिय ये २५ का पर्याप्ता । गति ४० बोलकी - १५ कर्मभूमि, ५ सज्ञी तिर्यच इन बीस का पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता एव ४० ।
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(२) दूसरी नरक मे बीस बोल की आगति - १५ कर्मभूमि, ५ संज्ञी तिर्यंच एव २० का पर्याप्ता । गति ४० बोल की पहली नरक समान । (३) तीसरी नरक में उन्नीस बोल की आगति — उक्त दूसरी नरक बोल में से भुजपर (सर्प) को छोड़ शेष उन्नीस । गति ४० की ऊपर के २० समान ।
(४) चौथी नरक में अठ्ठारह बोल की आगति — उक्त २० बोल मे से १ भुज पर (सर्प) तथा २ खेचर छोड शेष १८ बोल । गति ४० की ऊपर समान ।
(५) पाँचवी नरक मे १७ बोल की आगति - उक्त २० बोल में से १ भुज पर (सर्प) २ खेचर ३ स्थल चर ये तीन छोड़ शेष १७ बोल । गति ४० की पहली नरक समान ।
१ नेरिये और देवता काल करके मनुष्य तथा तिर्यच मे उत्पन्न होते है । ये अपर्याप्त अवस्था मे नही मरते अत इस अपेक्षा से कोई केवल पर्याप्ता ही मानते है ।