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जैनागम स्तोक संग्रह उत्पन्न हुए जहां आप ८२ रात्रि पर्यन्त रहे । ८३ वी रात्रि को शकेन्द्र का आसन चलायमान हुआ तव शक्रेन्द्र ने उपयोग द्वारा मालूम किया कि श्री महावीर स्वामी भिक्षुक कुल के अन्दर उत्पन्न हुये है। ऐसा जानकर शक्रेन्द्र ने हरिणगमेषी देव को बुला कर कहा कि तुम जाकर क्षत्रियकुण्ड के अन्दर, सिद्धार्थ राजा के यहॉ, त्रिशला देवी रानी की कुक्षि (कोख) में श्री महावीर स्वामी का गर्भ प्रवेश करो और जो गर्भ त्रिशला देवी रानी की कोख में है उसे ले जाकर देवानन्दा ब्राह्मणी की कोख में रक्खो। इस पर हरिण गमेषी आज्ञानुसार उसी समय माहण कुण्ड नगरी में आया व आकर भगवंत को नमस्कार करके बोला "हे स्वामी! आपको भलीभांति विदित है कि मैं आपका गर्भ हरण करने आया हूं।" इस समय देवानन्दा को अवस्वापिनि निद्रा मे डाल कर गर्भ हरण किया व गर्भ को ले जाकर क्षत्रीय कु ड नगर के अन्दर सिद्धार्थ राजा के यहाँ, त्रिशला देवी रानी की कोख में रक्खा व त्रिशला देवी रानी की कोख मे जो पुत्री थी उसे ले जाकर देवानन्दा ब्राह्मणी की कोख में रक्खी। यो सवा नव मास पूर्ण होने पर भगवंत का जन्म हुआ। दिन प्रति दिन बढने लगे व अनुक्रम से यौवनावस्था को प्राप्त हुए, तब यशोदा नामक राजकुमारी के साथ आपका पाणि-ग्रहण हुआ। समस्त सांसारिक सुख भोगते हुए आपके एक पुत्री उत्पन्न हुई, जिसका नाम प्रियदर्शना रक्खा गया । आप तीस वर्ष तक संसार मे रहे । माता-पिता के स्वर्गवासी होने पर आपने अकेले ही दीक्षा ग्रहण की, सयम लेकर १२ वर्ष ६ माह १५ दिन तक कठिन तप, जप ध्यान धर कर भगवत को वैशाख माह की सुदी दशमी को सुवर्त नामक दिन को विजय मुहूर्त में, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में, शुभ चन्द्रमा के मुहूर्त में विजयंता नामक पिछली पहर मे भिया नगर के बाहर, ऋजुबालुका नदी के उत्तर दिशा के तट पर समाधिक गाथापति कृष्णी के क्षेत्र में, वैयावत्यी यक्षालय के ईशान दिशा की ओर शाल वृक्ष के समीप,