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गर्भ विचार
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प्रकार एक के बाद एक विपाक का उदय होता है । सब का मूल मोह है, तद्पश्चात् मन, फिर इन्द्रिय विषय और इन से प्रमाद की वृद्धि होती है कि जिसके वश मे पडा हुआ प्राणी, इन्द्रियो को पोषण करने के रस सिवाय, रत्नत्रयात्मक अभेदानन्द के आनन्द की लहर का रसीला नही हो सकता किंतु उलटा ऊँच-नीच कर्मों के आकर्षण से नरक आदि चार गति मे जाता व आता है । इनमे विशेष करके देव गति के सिवाय तीन गति के जन्म अशुचि से पूर्ण है । जिसमे से नरक कुण्ड के अन्दर तो केवल मल-मूत्र और मास रुधिर का कादा (कीचड) भरा हुआ है व जहाँ छेदन भेदन आदि का भयङ्कर दुख होता है जिसका विस्तार सुयगडाग सूत्र से जानना ।
यहाँ से जीव मनुष्य या तिर्यच गति मे आता है, यहाँ एकात अशुद्धि का भण्डार रूप गर्भावास में आकर उत्पन्न होता है । पायखाने से भी अधिक यह नित्य अखूट कीच से भरा हुवा है यह गर्भावास नरक के स्थान का भान कराता है व इसी प्रकार इसमे उत्पन्न होने वाला जीव नेरिये का नमूना रूप है । अन्तर केवल इतना ही है कि नरक में छेदन, भेदन, तर्जन, खण्डन, पीसन और दहन के साथ २ दश प्रकार की क्षेत्र वेदना होती है वह गर्भ मे नही, परन्तु गति के
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प्रमारण मे भयङ्कर कष्ट और दुख है ।
उत्पन्न होने की स्थिति तथा गर्भस्थान का विवेचन
शिष्य – हे गुरु ! गर्भस्थान मे आकर उत्पन्न होने वाला जीव वहा कितने दिन, कितनी रात्रि तथा कितने मुहूर्त तक रहता है ? और उतने समय मे कितने श्वासोश्वास लेता है ? गुरु- हे शिष्य ! उत्पन्न होने वाला जीव २७७|| अहोरात्रि तक रहता है । वास्तविक रूप से देखा जाय तो गर्भ का काल इतना ही होता है । जीव ८, ३२५, मुहूर्त गर्भस्थान में रहता है । और १४, १०, २२५ श्वासोश्वास लेता है । इसमे भी कमी - वेसी होती है ये सब कर्म विपाक का