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गर्भ विचार
सर्व सुगध मेरे शरीर से निकल कर बाहर आ रही है । इस प्रकार की शोभा व सुगध माता-पिता आदि किसी के भी शरीर ( चमडे ) मे नही है । इस प्रकार के मिथ्याभिमान की आधी मे पडे हुए बेभान अज्ञान प्राणियो को गर्भवास के तथा नरक निगोद के अनन्त दुख पुनः तैयार है। इतना तो सिद्ध है कि ये सब विकार पापी माता की मूर्खता के स्वभाव का तथा कम भाग्य के उत्पन्न होने वाले पापी गर्भ के वक्र कर्मों का परिणाम है।
अब दूसरी तरफ विवेकी और धर्मात्मा व शीलवत धारण करने वाली सगर्भा माताओ के पुत्र-पुत्रिये जन्म लेकर उछरते है। इनकी जन्म क्रिया भी वैसी ही होती है। अन्तर केवल इतना कि इन पर माता-पिता के स्वभावो की छाया पड़ी हुई होती है। इस प्रकार की माताओ के स्वभाव का पान करके योग्य उम्र वाले पुत्र-पुत्रियां भी अपने २ पुण्यो के अनुसार सर्व वैभव का उपभोग करते है। इतना होते हुए भी अपने माता पिता के साथ विनय का व्यवहार करते है, गुरुजनो के प्रति भक्ति का व्यवहार करते है । लज्जा, दया, क्षमादि गुणो मे और प्रभु प्रार्थना मे आगे रहते है, अभिमान से विमुख रह कर मैत्री भाव के सम्मुख रहते है । जीवन योग्य सत्सङ्ग करके ज्ञान प्राप्त करते है और शरीर सम्पत्ति आदि की ओरसे उदास रहकर आत्म स्मरण मे जीवन पूर्ण करते है।
अत. सर्व विवेक दृष्टि वाले स्त्री-पुरुषो को इस अशुचिपूर्ण गन्दे शरीर की उत्पत्ति पर ध्यान देकर ममता घटानी चाहिये, मिथ्याभिमान से विमुख रहना चाहिये । मिली हुई जिन्दगी को सार्थक करने के लिये सत्कर्म करना चाहिये कि जिससे उपरोक्त गर्भवास के दु.खो को पुनः प्राप्त नही करना पड़े । एव सत्परुष को मन, वचन और कर्म से पवित्र होना चाहिये ।