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जैनागम स्तोक संग्रह परीक्षा होती है । दोनों पांव की घुटी के नीचे दो नाड़ी, एक नाभी की, एक हृदय की, एक तालवे की दो लमणे की और दो हाथ की एवं नव । इन सर्व नाडियों का मूल सम्बन्ध नाभि से है। नाभि से १६० नाड़ी पेट तथा हृदय ऊपर फैलकर ठेठ ऊंचे मस्तक तक गई हुई है। इनके बन्धन से मस्तक स्थिर रहता है । ये नाड़िये मस्तक को नियम पूर्वक रस पहुंचाती है जिससे मस्तक सतेज आरोग्य और तर रहता है । जव नाड़ियों में नुकसान होता है तब आँख, नाक, कान और जीभ ये सब कमजोर रोगिष्ट बन जाते है व शूल, गुमडे आदि व्याधियों का प्रकोप होने लगता है।
दूसरी १६० नाडी नाभी के नीचे चली हुई है जो जाकर पांव के तलिये तक पहुची हुई है । इनके आकर्षण से गमनागमन करने, खड़े होने व बैठने आदि में सहायता मिलती है। ये नाड़िये वहा तक रस पहुँचा कर शरीर आदि को आरोग्य रखती है । नाड़ी में नुकसान होने से संधिवात, पक्षाघात (लकवा) पैर आदि का कूटना, कलतर, तोड़काट, मस्तक का दुखना व आधाशीशी आदि रोगो का प्रकोप हो जाता है।
तीसरी १६० नाडी नाभी से तिर्की गई हुई है। ये दोनो हाथों की आँगुलिये तक चली गई है। इतना भाग इन नाडियों से मजबूत रहता है । नुकसान होने से पासा शूल, पेट के दर्द, मुह के व दांतो के दर्द आदि रोग उत्पन्न होने लगते है।
चौथी १६० नाडी नाभी से नीचे गर्भ स्थान पर फैली हुई है । जो अपान द्वार तक गई हुई है । इनकी शक्ति द्वारा शरीर का बन्धेज रहा हुवा है। इनके अन्दर नुकसान होने पर लघु नीत वडी नीत आदि की कबजियत (रुकावट) अथवा अनियमित छूट होने लग जातो है। इसी प्रकार वायु, कृमि प्रकोप, उदर विकार, अर्श, चांदी, प्रमेह, पवनरोध, पांडु रोग, जलोदर, कठोदर, भगंदर, संग्रहणी आदि का प्रकोप होने लग जाता है।
प्रकोप होनाडु रोग, जलोदरकोप, उदर विकार