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जैनागम स्तोक संग्रह
है । ऐसा समझ कर प्रजा ( सन्तति) की हित इच्छने वाली जो माताएं गर्भ काल मे शीलवन्ती रहती है वे धन्य है |
विशेष में उपरोक्त गर्भावास के स्थानक में महा कष्ट तथा पीडा उठानी पड़ती है । इस पर एक दृष्टांत दिया जाता है - जिस मनुष्य का शरीर कोढ तथा पित्त के रोग से गलता होवे ऐसे मनुष्य के शरीर
साड़ तीन क्रोड सूईये अग्नि में गरम करके साढ़े तीन रोमो के अन्दर पिरोवे । पुन. शरीर पर निमक तथा चूने का जल छीट कर शरीर को गीले चमड़े से मढ़े और मढ़ कर धूप के अन्दर रखे । सूखने ( शरीर का चमड़ा ) पर जो अत्यन्त कष्ट उसे होता है, उस ( दुख ) को सिवाय भोगने वाले और सर्वज्ञ के अन्य कोई नही जान सकता । इस प्रकार वेदना पहिले महीने गर्भ को होती है, दूसरे महीने दुगनी एवं उत्तरोत्तर नववे महीने नवगुणी वेदना होती है । गर्भवास की जगह छोटी है और गर्भ का शरीर (स्थूल) वडा है, अतः सुकड़ करके आम के समान अधोमुख करके रहना पडता है । इस समय मस्तक छाती पर लगा हुआ और दोनो हाथो की मुट्ठिये आँखो के आड़े दी हुई होती है। कर्मयोग से दूसरा व तीसरा गर्भ यदि एक साथ होवे तो उस समय की सकड़ाई व पीड़ा वर्णनातीत है । माता की विष्टा (मल) गर्भ के नाक पर से होकर गिरती है । खराब से खराब गन्दगी मे पडा हुआ होता है । बैठी हुई माता खडी होवे तो उस समय गर्भ को ऐसा मालूम होता है कि मैं आसमान मे फेका जा रहा हू । नीचे बैठते समय ऐसा मालूम होता है कि मै पाताल मे गिराया जा रहा हू । चलते समय ऐसा जान पडता है । कि मसक मे भरे हुए दही के समान डोलाया जा रहा हूँ । रसोई करने के समय गर्भ को ऐसा मालूम होता है कि मैं ईट की भट्ठी मे गल रहा हूँ । चक्की के पास पीसने के लिये बैठने पर गर्भ जाने कि मै कुम्हार के चाक पर चढाया जा रहा हूँ । माता चित्त सोवे तब गर्भ को मालूम होवे कि मेरी छाती पर सवा मन
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