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गर्म विचार गुरु-हे शिष्य ! पन्नवणा, भगवती सूत्र का तथा ग्रंथकारो का अभिप्राय देखने पर सर्व जन्म और मृत्यु के दुःखों का मुख्यतः चौथा मोहनीय कर्म के उदय मे समावेश होता है। मोहनीय मे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म एव तीन का समावेश होता है।ये चार ही कर्म एकांत पाप रूप है। इनका फल असाता और दुःख है। इन चारो ही कर्मों के आकर्षण से आयुष्य कर्म बधता है व आयुष्य शरीर के अन्दर रहकर भोगा जाता है, भोगने का नाम वेदनीय कर्म है, इस कर्म मे साता तथा असाता वेदनीय का समावेश होता है और इस कर्म के साथ नाम तथा गोत्र कर्म जुड़ा हुआ है और ये आयुष्य कर्म के साथ सम्बन्ध रखते है । ये चार कर्म शुभ तथा अशुभ एवं दो परिणामो से बधते है अतः इन्हे मिश्र कहते है। इनके उदय से पुण्य तथा पाप की गणना की जाती है ।
इस प्रकार आठ कर्मो का बन्ध होता है और ये जन्म मरण रूप क्रिया के द्वारा भोगे जाते है । मोहनीय कर्म सर्व कर्मों का राजा है । आयुष्य कर्म इसका दीवान है मन हजूरी सेवक है जो मोह राजा के आदेशानुसार नित्य नये कर्मो का सचय करके बन्ध बान्धता है। ये सब पन्नवणाजी सूत्र में कर्म प्रकृति पद से समझना । मन सदा चचल व चपल है और कर्म सचय करने मे अप्रमादी व कर्म छोडने मे प्रमादी है इस से लोक मे रहे हुए जड़ चैतन्य रूप पदार्थों के साथ, राग द्वेष की मदद से, यह मिल जाता है। इस कारण उसे 'मन योग' कह कर पुकारते है । मन योग से नवीन कर्मो की आवक आती है। जिसका पांच इन्द्रियों के द्वारा भोगोपभोग किया जाता है । इस
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