________________
१८२
जैनागम स्तोक संग्रह में क्षय करे तब केवल ज्योति प्रकट होवे । क्षीण अर्थात् क्षय किया है सर्वथा प्रकारे मोहनीय कर्म जिस गुणस्थान पर उसे क्षीण मोहनीय गुणस्थान कहते है।
१३ सयोगी केवली गुणस्थान .-दस बोल सहित तेरहवे गुणस्थान पर विचरे । सयोगी, सशरीर, सलेशी, शुक्ल लेशी, यथाख्यातचारित्र, क्षायक समकित पंडित वीर्य, शुक्लध्यान, केवलज्ञान, केवलदर्शन एवं दश बोल जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देश न्यून करोड़ पूर्व तक विचरे । अनेक जीवों को तार कर, प्रतिबोध देकर, निहाल करके, दूसरे तीसरे शुक्ल ध्यान के पाये को ध्याय कर चौदहवे गुणस्थान पर जावे । सयोगी याने शुभ मन, वचन, काया के योग सहित बाह्य चलोपकरण है। गमनागमनादिक चेष्टा शुभ योग सहित है केवलज्ञान, केवलदर्शन उपयोग समयांतर अविछिन्न रूप से शुद्ध प्रणमें इसलिये इसे सयोगी केवली गुणस्थान कहते है।
१४ अयोगी केवली गुणस्थान :-शुक्ल ध्यान का चौथा पाया समुछिन्नक्रिय, अनन्तर अप्रतिघाती, अनिवृति, ध्याता, मन योग रूंध कर, वचन योग रूंध कर, काय योग रूंध कर, आनप्राण निरोध कर रूपातीत परम शुक्ल ध्यान ध्याता हुवा ७ बोल सहित विचरे। उक्त १० बोल मे से सयोगी, सलेशी, शुक्ल लेशी, एवं तीन वोल छोड शेष ७ वोल सहित सर्व पर्वतों के राजा मेरु के समान अडोल, अचल, स्थिर अवस्था को प्राप्त होवे । शैलेशी पूर्वक रह कर पच लघु अक्षर के उच्चार प्रमाण काल तक रह कर शेष वेदनीय, आयुष्य, नाम एव गोत्र ४ कर्म क्षीण करके मोक्ष पावे । शरीर औदारिक, तेजस्, कार्मण सर्वथा प्रकारे छोड़कर समश्रणी ऋजु गति अन्य आकाश प्रदेश को नहीं अवगाहता हुवा-अरणफरसता हुवा एक समय मात्र में उर्ध्वगति अविग्रह गति से वहां जाकर एरड वीज बंधन मुक्त वत्, निर्लेप तुम्बीवत्, कोदंड मुक्त बाणवत्, इन्धन-वह्नि